बेशक, इन दिनों सबसे ज्यादा चर्चा में भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्र है। होगी भी क्यों नहीं, आडवाणीजी को जन-समर्थन भी खूब मिल रहा है। चर्चा में उत्तरप्रदेश के भाजपा नेताओं की यात्रएं भी हैं, तो देश में और जहां-जहां यात्रएं हो रही हैं या होने वाली हैं, उनकी भी पर्याप्त चर्चा हो रही है, पर मानना यह भी पड़ेगा कि इन सभी यात्रओं का मकसद राजनीतिक है। फिर भी, इन यात्रओं का चर्चा में रहना या इन्हें जन-समर्थन मिलना कोई गलत बात नहीं है। हां, गलत यह जरूर है कि इन यात्रओं के बीच एक और यात्र कहीं गुम हो गई है, हालांकि यह यात्र जारी है।
तीन अक्टूबर को केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम से शुरू हुई यह यात्र 30 सितंबर-2012 को यानी लगभग एक वर्ष बाद ग्वालियर पहुंचेगी और वहां से एक लाख लोगों को लेकर पैदल दिल्ली के लिए कूच करेगी, जिसमें भागीदार के तौर पर ज्यादातर वे लोग शामिल होंगे, जो हकीकत में इस देश और उसकी माटी, जल, जमीन, जंगल के असली वारिस हैं, लेकिन वे शहरी सभ्यता की तरह सुसंस्कृत नहीं हुए हैं, इसलिए उन्हें आदिवासी कहा जाता है। आदिवासी का एक और मतलब यह तो होता ही है कि वे लोग, जो सदियों से इस देश में रहते आए हैं।
इस जन-सत्याग्रह यात्र में वे किसान भी शामिल होंगे, जिनकी जमीनों को गैर-कृषि कार्यो के लिए पूरे देश में अधिग्रहीत किया जा रहा है और अपना वाजिब हक मांगने पर पुलिस की लाठियों और गोलियों से उनका स्वागत किया जा रहा है। प्रसिद्ध गांधीवादी कार्यकर्ता और भारतीय एकता परिषद के अध्यक्ष पीवी राजगोपाल एक साल की इस कठिन यात्र पर नागरिकों को जगाने और देशभर से समर्थन हासिल करने के लिए निकल चुके हैं। दो अक्टूबर को गांधीजी की समाधि से विदाई के बाद दिल्ली में उनकी वापसी अगले साल एक लाख लोगों के साथ होगी।
इस जन-सत्याग्रह यात्र के साथ जब वे दिल्ली की ओर कूच करेंगे, तब जाकर शायद देश भी जागेगा। पीवी राजगोपाल वर्ष-2007 में भी 25 हजार आदिवासियों और किसानों को लेकर ग्वालियर से दिल्ली तक पैदल कूच कर चुके हैं। इस यात्र के दौरान हालांकि दुर्घटना और बीमारी की वजह से कुछ लोगों की मौत जरूर हो गई थी, लेकिन रास्ते में पड़ने वाला प्रशासन भी मानता है कि हाल के दिनों में ऐसा अनुशासित मार्च पहले कभी नहीं देखा गया। इस यात्र के दौरान एक भी खोमचे नहीं लूटे गए, सड़कों के किनारे के खेतों से एक भी गन्ना नहीं तोड़ा गया। यहां तक कि पौधों को नुकसान तक नहीं पहुंचाया गया और यह जनादेश यात्र 2007 में जब गांधी जयंती के दिन दिल्ली में गांधी समाधि पहुंची, तो देश की सरकार को लगा कि अब इन किसानों और आदिवासियों की आवाज अनसुनी नहीं की जा सकती और तब के ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह को इन सत्याग्रहियों के पास जाना पड़ा। तब रघुवंश प्रसाद सिंह ने एक सुचारू भूमि वितरण प्रणाली विकसित करने व लोगों को जमीनों का अधिकार देने की मांग को मंजूर किया था।
इसके साथ ही जल, जंगल और जमीन पर उनके असली हकदारों को अधिकार देने का सरकार ने वादा तो किया था, लेकिन सरकार इनमें से एक भी वादे को अभी तक पूरा नहीं कर पाई है। चार साल के लंबे इंतजार के बाद जब पीवी राजगोपाल को लगने लगा कि सरकार ऐसे नहीं सुनने वाली है, तो उन्होंने एक बार फिर वही गांधीवादी रास्ता अख्तियार किया और अलख जगाने के लिए देशव्यापी यात्र पर निकल पड़े। राष्ट्रीय एकता परिषद ने इस यात्र को जन-सत्याग्रह यात्र का नाम दिया है। राष्ट्रीय एकता परिषद जिन मांगों को लेकर देशव्यापी अलख जगाओ अभियान में जुटी हुई है, उनमें कई प्रमुख मांगों को देशभर में भूमिहीनों और किसानों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे संगठन भी स्वीकार कर चुके हैं। दरअसल, आज शहरीकरण और औद्योगीकरण के नाम पर खेती योग्य जमीनों का भी जबरिया अधिग्रहण बढ़ता जा रहा है। इससे खेती के साथ ही उस जमीन पर आधारित जनसंख्या के जीवन-यापन की समस्याएं भी खड़ी हो रही हैं।
पूरे देश, खासतौर पर ग्रामीण और आदिवासी भारत में इसे लेकर आम सहमति है कि भूमिहीनों और गरीबों को जोत का अधिकार दिया जाना चाहिए, ताकि कोई उनसे जमीन खाली नहीं करा सके। जन-सत्याग्रह यात्र में लोगों को जागरूक बनाने के लिए यह अहम मांग ही रखी गई है। इसके साथ ही साथ तथाकथित विकास योजनाओं, जैसे राष्ट्रीय अभयारण्य, बड़े बांध, खनिज उद्योग, स्पेशल इकोनॉमिक जोन और पावर प्लांट आदि के नाम पर किसानों की जमीनों का अधिग्रहण तो किया ही जा रहा है, आदिवासियों को विस्थापित करने का काम भी पूरे देश में तेजी से हो रहा है। जन-सत्याग्रह यात्र का एक मकसद इस परिपाटी को रोकना, इसको बदलना भी है।
वैसे तो विस्थापन आज के दौर की नियति है, लेकिन इस विस्थापन में मानवीय पहलुओं को शासन-प्रशासन कम ही तरजीह देता है। विस्थापन के बाद संस्कृति से लेकर जीवन-यापन तक की राह में कई कठिनाइयां आती हैं। अध्ययनों से साबित हो चुका है कि 1947 से लेकर 2000 तक ही पूरे देश में करीब छह करोड़ लोग अपनी जमीन और जीविका से विस्थापित हो चुके हैं। जाहिर है कि इस दौर में पीढ़ियां तक गुजर गई हैं, लेकिन विस्थापितों की हालत नहीं सुधरी। इसे लेकर पूरी दुनिया में बहस और वैकल्पिक उपायों को सुझाने की कवायद भी चल रही है, लेकिन जन-सत्याग्रह यात्र में एक अहम मकसद इस समस्या को मानवीय तरीके से हल करना भी है।
देश में विस्थापितों की एक जायज शिकायत यह है कि उन्हें उचित मुआवजे नहीं मिल पाए हैं। नोएडा के भट्टा पारसौल जैसी घटनाएं ऐसी ही शिकायतों की वजह से होती हैं। जन-सत्याग्रह यात्र में भी यह मांग उठ रही है कि जो लोग पहले से ही विस्थापित हो चुके हैं, उन्हें निष्पक्ष और तत्काल मुआवजा दिया जाए। इसके साथ ही उन्हें ठीक से पुनस्र्थापित करने की मांग भी उठ रही है। इस देश में गरीबों की सबसे बड़ी शिकायत यह है कि उन्हें रोजगार और जीवन-यापन के सही मौके नहीं मिल रहे हैं। यह शिकायत गलत नहीं है, सही ही है। जन-सत्याग्रह यात्र का एक मकसद इसे भी सुनिश्चित कराना है।
गांधी की राह पर चल रही इस जन-सत्याग्रह यात्र के ढेर सारे आयाम हैं। इसमें जिंदगी गुजारने के लिए बेहतर उपाय सुझाना भी शामिल है, तो लोगों के अंदर जिंदगी को लेकर अनुशासनबोध भरना भी। इस यात्र में आंदोलन की आंच भी है, तो समाज को बदलने का सपना भी, लेकिन रचनात्मक आधार वाली इस जन-सत्याग्रह यात्र पर इन दिनों न तो राजनीति का ध्यान है और न ही मीडिया का। पता नहीं, इसे तवज्जो क्यों नहीं दी जा रही है? 30 सितंबर -2012 को जब एक लाख लोगों का अनुशासित कारवां दिल्ली की तरफ कूच करेगा, तब शायद लोगों का ध्यान इस यात्र पर जाए। तब शायद सरकार भी जागे।
-- उमेश चतुर्वेदी