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एकता परिषद भू अधिकार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अहिंसात्मक जन आंदोलन है. लोगों की आवाज सुनी जाए इसके लिए एक बड़े पैमाने की राष्ट्री अभियान की नींव रखी गयी थी, जिसे जनादेश 2007 कहा गया, जिसके माध्यम से 25 हजार लोगों ने राष्ट्रीय राजधानी तक पहुंच कर अपनी आवाज बुलंद की.

आदिवासी इलाकों में शांति

बहुत सारे प्रद्गन और समस्यायें आदिवासियों के सामने चुनौती के रूप में खडी है, जिसका हल सरकार को ढूंढना चाहिए। वन अधिकार मान्यता कानून 2006 बहुत सारे आंदोलनों, धरना व प्रदर्द्गानों के बाद अस्तित्व में आया है। 1980 के वन संऱक्षण अधिनियम के बाद की स्थिति को बदलने के लिए 25 वर्षो तक आंदोलन करना पडा और जो उपलब्धी हुई उससे सबको आनंद हुआ क्योकिं यह एक बहुत बडा ऐतिहासिक अन्याय था जिसे ठीक करना आदिवासियों के हितों मे बहुत ही जरूरी था। इसलिए वनअधिकार मान्यता कानून के प्रथम पैराग्राफ में आदिवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को स्वीकार भी किया गया है। सरकार भी इस बात को मानती है कि ऐतिहासिक रूप से आदिवासियों के साथ अन्याय हुई है और इस अन्याय को समाप्त करने के लिए गंभीरता पूर्वक पूरा देद्गा लगेगा।
आज आदिवासी और उनके बीच काम करने वाले लोग काफी निराद्गा हैं और यह निराद्गाा इसलिए है कि जिस विभाग से जमीन लेकर आदिवासियों को देने की बात इस कानून में कही गयी वह ऐतिहासिक रूप से आदिवासियों को दुद्गमन मानने वाला विभाग है। उसी विभाग से जमीन लेकर आदिवासियों को अधिकारिक रूप से बसाने की प्रक्रिया आसान नहीं है, इसलिए यह कानून आदिवासी भूमि अधिकार कानून होना चाहिए था। जैसे ही इस कानून को वनअधिकार कानून बताया गया तो वनविभाग इस कानून को लेकर हावी हो गया। अब वनविभाग के मेहरबानी पर किसी को बसाने का कार्यक्रम हो गया है। सही में आदिवासियों के साथ अन्याय को समाप्त करने वाला कानून नहीं बन पाया।
आदिवासी मामलों के लिए अलग से मंत्रालय और विभागों का गठन किया गया है जिसमें मंत्री, राज्यमंत्री और हजारों अधिकारी व कर्मचारी है। वे लोग इतने निष्क्रीय है कि कभी भी अपनी जवाबदेही को नहीं समझ सके इसके अलावा की तनखवाह लेकर अपनी जेब भरें जिसके कारण आज भी आदिवासी वन विभाग और पुलिस के भरोसे जी रहे हैं। उनके हितों व अधिकारों के लिए बना मंत्रालय और विभाग कोई भी उनके हित का काम नहीं कर रहा इसलिए इस विभाग को या तो सक्रिय करना चाहिए अन्यथा बंद ही कर देना चाहिए।
वनविभाग वनअधिकार कानून का उपयोग करने के बदले दुरूपयोग कर रहा है जहां भी उसके पास सूची में उनके नाम थे उनको जमीन देकर अन्य आदिवासियों को मार कर भगा रहा है। इस कानून के लागू होने के बाद भी आदिवासियों की झोपडी को जलाना, उनकी फसल को नुकसान पहुचांना, हल बक्खर जब्त करना और उनकी जमीन पर वृक्षारोपण करना निंरतर चल रहा है। वनविभाग का आदिवासियों के प्रति रूख बिल्कुल नहीं बदला। कानून के फायदे के बदले आदिवासियों को बहुत नुकसान होने लगा है और यह कानून भी बाकी कानून जैसा ही हो गया है। क्योंकि इसके जड़ में है सरकारी कर्मचारियों का नजरिया। क्योंकि मामला सरकारी कर्मचारियों के नजरिया का है इसलिए जब तक यह नहीं बदलेगा तब तक कोई भी कानून कोई भी सामाजिक परिवर्तन नहीं ला पायेगा।
एक तरफ योजना आयोग और अन्य सरकारी तंत्र इस बात को जोर जोर से कह रहा है कि आदिवासी क्षेत्रों में हिंसा इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि उनके लिए बनाये गयी योजनाएं और कानून का सही क्रियान्वयन नहीं हो रहा है। क्योंकि जो योजना उनके हित में बनी है उसको लागू करने के लिए न तो कोई प्रभावी तंत्र है और न ही मजबूत दृढ इच्छा शक्ति। इसलिए केवल भाषण और चिंता से समस्या हल नहीं होगी, इसे करने के लिए सरकार के पास दृढ इच्छा शक्ति होना चाहिए।
भारत में कुल मिलाकर 8 प्रतिद्गात आदिवासी, 12 प्रतिद्गात घुमंतु आदिवासी और 20 प्रतिद्गात के आस पास भूमिहीन दलित हैं अर्थात लगभग 40 प्रतिद्गात लोग देद्गा में संसाधन विहीन हैं। ससांधन विहीन लोगों के लिए जो भी योजना या कानून हैं उसको लागू करने में सामाजिक संगठनों का एक जबरदस्त भूमिका होना चाहिए, क्योंकि यही लोग हैं जो धरती से जुडे हैं या उनके नजदीक हैं। सरकारी लोग आज भी दफतरों में बैठकर ही अपना समय बिताना चाहते हैं। जिस तरह से वनविभाग ने आदिवासियों को अपना दुद्गमन मान बैठा है उसी तरह से सरकार ने भी सामाजिक संगठनों और आदिवासियों के बीच काम करने वालों को अपना दुद्गमन मान बैठी है, जिसके कारण किसी भी योजना या कानून को लागू करने में उनके साथ काम करने में सरकारी लोग आनाकानी करते हैं या संकोच।
पुरा आदिवासी इलाका खदान, उद्योग, औद्योगिक इकाईयों और पांच सितारा होटल बनाने वालों के हाथ में चला गया है। इसलिए आदिवासी  इलाके में जो हिंसा व अद्गाांति है उसको खत्म करके शांति कायम करना हो और इन सबके चुंगल से आदिवासियों को बचाना है तो एक जबरदस्त कार्य योजना की जरूरत है। वह कार्ययोजना तब बनेगी जब सरकार और सामाजिक संगठनों के लोग एक साथ बैठेंगे और योजना बनाकर उसका क्रियान्वयन करेंगे। एक अभियान के रूप में और समय सीमा में ही एकीकृत रूप से इस कार्यक्रम को शुरू किया जा सकता है। छिट पुट कार्यक्रम में इसे पूरा नहीं किया जा सकता। इसके लिए समयवद्व तरीके से अभियान के रूप में सम्पूर्ण ताकत लगाने की जरूरत है। अन्यथा इस देद्गा में कानून तो बहुत बना जैसे सीलिंग कानून, बटांईदार कानून, बंधुआ मुक्ति कानून इत्यादि लेकिन आम जनता के जीवन में कोई बदलाव नहीं आया। इसी तरह से वनअधिकार मान्यता कानून भी कागजी कानून बन कर रह जायेगा यदि आदिवासियों को न्याय दिलाने और गरीबी उन्मूलन के प्रति सरकार गंभीर न हो तो।
लेखक- राजगोपाल पी.व्ही, अध्यक्ष, एकता परिषद
14 जनवरी 2011