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एकता परिषद भू अधिकार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अहिंसात्मक जन आंदोलन है. लोगों की आवाज सुनी जाए इसके लिए एक बड़े पैमाने की राष्ट्री अभियान की नींव रखी गयी थी, जिसे जनादेश 2007 कहा गया, जिसके माध्यम से 25 हजार लोगों ने राष्ट्रीय राजधानी तक पहुंच कर अपनी आवाज बुलंद की.

Saturday 14 May 2011

छत्तीसगढ़ की भूमि समस्या : पिसता आदिवासी

म.प्र. भू-राजस्व संहिता-1959, अब नाम मात्र के परिवर्तनों के साथ ''मध्यप्रदेश भूमि प्रबंधन 1999'' के नाम से संस्थापति होगी। छत्तीसगढ़ में इसकी कितनी अनुशंसाओं को स्वीकारा जायेगा? या ज्यों का त्यों इसका कलेवर स्वीकार्य होगा यह गंभीर सोच का प्रश्‍न है। छत्तीसगढ़ की 77 ग्रामीण आबादी इससे सीधे-सीधे प्रभावित होगी तो शहरी आबादी भी इसके परिणामों से न बच सकेगी। नये छत्तीसगढ़ के विकास के सपनों को साकार रूप देने में ''भूमि-प्रबंधन'' सर्वाधिक निर्णयक पहलू है। ऐसे में म.प्र. में प्रचलित राजस्व संहिता की शल्य-क्रिया करना परम आवश्‍यक है।

बात की शुरुआत अंचल के मूल निवासी आदिवासी भाइयों के हितों से जुड़ा विकास की दौड़ से दूर प्रकृति की सुरम्य वादियों और जंगलों में आबाद लोग म.प्र. भू- राजस्व संहिता 1959 (अब 1999) की टीम को असहाय रूप में सह रहे हैं। इस संहिता की धारा 108 के अनुसार प्रत्येक खेत का एक नक्शा होगा, इसी नक्शे को आधार मानकर धारा 114 एवं 123 में भू-अभिलेख तैयार किए जाते हैं। आम बोलचाल की भाशा में इन्हें क्रमश: खसरा और बी-1 के नाम से जाना जाता है। समस्या के मूल में यही धारा 108 है। जब से म.प्र. भू-राजस्व संहिता बनी और आज पर्यंत छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में 1000 से अधिक ग्राम ऐसे हैं जिनको खेतों का नक्शा किसी भी मान्य पर नहीं बने हैं। अब चूंकि खेत का नक्शा ही नहीं है,इसलिए खेत पर किसका अधिकार है? इसका भाग्य विधाता एक ही व्यक्ति है, पटवारी। ये व्यक्ति प्रत्येक वर्ष खेतों पर घूम कर मसाहती खसरा और बी-1 तैयार करता है। (मसाहती ग्राम ऐसे ही बिना नक्शे वाले पटवारी के रहमों कदम पर आश्रित ) ग्रामों को कहा जाता है। ( कहने को तो पटवारी खेतों पर घूम-घूम कर हक तय करता है, लेकिन हक मिलता है उन्हीं लोगों जो पटवारी को शुरु कर लें। प्रचलित तो वहां तक है कि जब तक है कि जब भी किसी पटवारी जो भारी -भरकम साहव या मंत्री की आव-भगत करनी होती है वह मसाहती ग्रामों से मनचाहा वसूली कर सकता है, ऐसे में किसे सही हक मिलेगा समझना आसान है।

अब एक मार्मिक प्रश्न खड़ा होता है धारा 165 (6) एवं 170 से, इस धारा 165 (6)से तथा कथित रूप से आदिवासियों की भूमि गैर आदिवासियों को हस्तांतरित नहीं की जा सकती, बैगर जिलाधीश की पूर्वानुमति के। लेकिन मसाहती ग्रामाें का क्या होगा? इस बारे में पूरा हक पटवारी के पास सुरक्षित है। कैसी विडम्बना है, आदिवासी बाहुल्य इलाके में ही आदिवासीयों का हित सुरक्षित नहीं है, आखिर आदिवासी हितों के नाम पर इतनी भंयकर भूल क्यों? सीधा सा उत्तार है, जो भी नियम कानून बनते हैं उनमें वास्तविक जनभागीदारी नहीं होती,बनाते बढ़ाया जाय तो मसाहती ग्रामों की जमीन की रजिस्ट्री का किस्सा भी रोचक नहीं तो चौंकाने वाला जरुर है। पंजीयक या उप-पंजीयक कार्यालय में इन ग्रामों की रजिस्ट्री के लिए कोई नियम कानून नहीं, क्यों? क्योंकि खेत का नक्शा नहीं । फिर खरीदी बिक्री कैसी होती है? सामान्य से 10 रु. के स्टाम्प पेपर पर । क्या इससे भूमि का स्वत्व दूसरे के नाम पर अंतरित होना चाहिए? धारा 110 ऐसा प्रावधान नहीं करती फिर भी ऐसा होता है चालीस सालों से म.प्र. में यही प्रचलीत है। अंदाज लगाये अब जंगलों में आदिवासी ग्रामाें आदिवासीयों के नाम पर कितनी भूमि बच गई होगी? संभव है वर्तमान कानूनों के तहत वे समय दर दर समय खेतिहर की श्रेणी में आ जायेंगे। मूर्खतापूर्ण बातें कितनी प्रचारित होती है कि इमली आन्दोलन तेन्दूपत्ताा आन्दोलन आदि-आदि से वनवासियों को आर्थिक रूप से मजबूत किया जा रहा। क्या,किसी ने जमीनी सच्चाई को समझा कि आदिवासियों के शोशण का पूरा बन्दोबस्त सरकारी नियमों तले ही दबा पड़ा है? शोशण भी कैसा, जो उनके पेट से सीधा जुड़ा है, जमीन का। इसे समझना होगा अंचल के कवर्धा, बिलासपुर, कोरबा, जशपुर, दंतेवाड़ा, आदि जिलों के दुर्गम मसाहती ग्रामों में छत्तीसगढ़ के भविष्‍य के गर्भ में भी यह यक्ष प्रश्‍न अनुगंजित रहेगा।

धारा 108 की ऋटि से मसाहीती ग्राम अस्तित्व में है। आखिर ऐसा क्यों हुआ? सन् 1926 के बीच इस अंचल का विस्तृत भू-मापन संपन्न हुआ। जिन ग्रामों में इस दौर में अंग्रेज अफसर नहीं पहुंच पाये उन ग्रामों का नक्शा भी तैयार नहीं हुआ। फिर बनी म.प्र. भू-राजस्व संहिता 1959 उसमें भी ये ग्राम नियमों के मोहताज रहें आखिर चालीस सालों में आदिवासियों के निकटत्तम हित से जुड़े जमीन के हित को हम क्यों अनदेखा कर गए? इस क्षेत्र में 1975 से बन्दोबस्त की योजना चालू कर इस दिशा में किचिंत पहल हुई सिसक-सिसक कर चलने वाली इस योजना को भी सरकार न बन्द कर दिया। फिर, अब भूमि माप के लिए घने जंगलों में कौन सी योजना लागू की जाय या यों ही छत्तीसगढ़ में भी आदिवासियों को भूमि हीन होने के लिए मसाहती ग्रामों के भरोसे छोड़ दिया जाय। छत्तीसगढ़ की नई सरकार के सामने भूमि-प्रबंधन की यह बड़ी चुनौती होगी, साथ में उसे विरासत में म.प्र. सरकार ने जिस बन्दोबस्त योजना को (धारा61से91) 15 मई, 2000 से बंद कर दिया है और इसके विकल्प की तलाश में भी जुझना होगा। वर्तमान में बिलासपुर, रायपुर, बस्तर और सरगुजा जिलों में बन्दोबस्त का भारी-भरकम अमला खाली बैठा है। नयी सरकार को भू-प्रंबधन पर पहला और त्वरित निर्णय यही लेना होगा कि बन्दोबस्त योजना को नया रूप दिया जाय या उसे अव्यवस्थित ढंग से जिस रूप में म.प्र. सरकार ने संचालित किया है उस ढर्रे को अपनाये। आवश्यकता इसी बात की है कि पुराने ढर्रे को बदला जाये। संहिता की अध्याय 4 में इन न्यायालयों को शक्ति संपन्न बनाया गया है। इन न्यायालयों में नायब तहसीलदार या तहसीलदार, एस डी एम जिलाधीश एवं आयुध्द की उपादेयता पर प्रश्‍न खड़े करते हैं। सर्वाधिक लंबित प्रकरण धारा 110 (जिसमें रजिस्ट्री उत्ताराधिकारी, दान पत्र इत्यादि के मायके होते हैं) धारा 178 (बंटवारा-पैतृक भूमि का) धारा 113, धारा 115 इत्यादि के हैं। हजारों की संख्या में प्रकरण तहसील सब डिवीजन एवं संभाग स्तर के न्यायालयों में पड़े हैं। द्दश्टब्य है कि यह स्थिति तमाम उन प्रयासों को ग्राम पंचायतों को सौंप रखा है। और उपर से ढर्रा यह भी है कि सरकार हर वर्ष ग्राम संपर्क का नाटक रचकर इन प्रकरणों को निपटारा का दावा करती है। ग्राम के भूमि संबंधी विवादों को कुटिल षडयंत्रकारी कानून विज्ञ भू-माफिया भी उलझाये हुए हैं। इसके पीछे के राजस्व न्यायालयों भी कमजोरों एवं गरीब किसान भी मजबूरी का बखूबी फायदा उठाते हैं, इस दर्द को नयी सरकार को महसूस करना होगा। सबसे पीड़ा दायक स्थिति ''रेहन'' में कृषि भूमि को मय रजिस्ट्री रखने वाले किसानों की है। ''रेहन का पैसा चुकता करने के बावजूद भी साहूकार लोग उनकी जमीन अपने नाम से कराने में नही चुकते, कारण धारा 110 रजिस्ट्रीकृत बनाया पर भूमि स्वस्त अन्तरण का अधिकार प्रदान करती है। अधिकारी और शंडयंत्रकारी दोनों ही इस स्थिति का लाभ उठाते हैं। भोले-भाले छत्‍तीसगढ़ी कृषकों की यह कोई छोटी-मोटी समस्या नहीं है, सीधा-सीधा उनके पेट से जुड़ा मामला है कानून की ताक में उन्हें ठगने का मामला है। इस संबंध में अनेक प्रकरण राजस्व न्यायालयों में लंबित है और वहां से निकलकर सिविल कोर्ट पहुंचते हैं आखिर न्याय की लंड़ाई में कौन जीतेगा, इसे बताने की शायद आवश्‍यकता नहीं है।

इस संहिता की धारा 129 भी कम परेशान करने वाली नहीं है। इसके अंतर्गत सीमांकन भी व्यवस्था है। अधिकार नायब तहसीलदार को है, महीनों चक्कर मारने के बाद भी गरीब किसान अपनी भूमि का नाप कराने में अक्षम रहते हैं। सहजता सिर्फ प्राप्त है,साधन संपन्न को। इससे भूमि संबंधी विवादों में कई हिसंक मोड़ हरित होते रहते हैं। इसे सरलतम-ग्रामीणों की पहुंच तक बनाने के उपाय खोजने होंगे। धारा 170 जिसमें आदिवासी हितों को सुरक्षित रखने की कोशिश माना जाता है उसे नये सिरे से आदिवासीयों के वास्तविक हित से जोड़कर परिभाषित करने की आवश्यकता है। एक ओर गंभीर समस्या पर सरकार को निर्णय लेना होगा। धारा 234 एवं 237 में ग्रामों में चरणोई भूमि को सुरक्षित रखने का प्रावधान है। पूर्व में एक ग्राम के लिए 10 प्रतिशत भूमि कम से कम चरणोई मद में सुरक्षित रखने का प्रावधान था। बाद में 6 प्रतिशत हुआ और म.प्र. सरकार के नये निर्णय के तहत चरण् भूमि सिर्फ 3 प्रतिशत ही ग्रामों में रह जायेगी। छत्तीसगढ़ के लिए यह कानून बकवास पूर्ण नहीं तो ग्रामों के विकास में बाधक जरुर है। अंचल पशुधन के मामले में अग्रणी है साथ ही ग्रामों में सड़क नहर, आबादी इत्यादि के लिए बड़ी मात्रा में भूमि की जरुरत विकास के साथ महसूस की जायेगी। धारा 168 के तहत भूमि है उससे कई पट्टे की व्यवस्था है। इस पर विचार भी जरुरी है बीस सूत्रीय कार्यक्रम 1976 में अनाप-शनाप गैर जिम्मेदाराना ढंग से इस अंचल में पट्टे वितरित किए गए हैं। नक्शे पर और स्थल पर जितनी भूमि है उससे कई-कई गुना जमीन लोगों को बांटी गई। दूसरी स्थिति यह भी है कि किसानों के नाम से खसरा एवं बी.-1, में लेकिन गांव में वे कहीं काबिज नहीं है। मजेदार स्थिति और भी है गांव में भूमि है खसरे में किसान का नाम है, किन्तु किसान को मालुम भी नहीं कि भूमि गांव में कहां पर है। इस ढंग के भूमि पट्टे बिलासपुर, सरगुजा, बस्तर आदि जिलों में थोक के भाव में बांटे गए हैं। एक अभियान के रूप में इन विसंगतियों को दूर करने की आवश्‍यकता है।

आबादी भूमि चारागाह भूमि, वन पेड़ कटाई, राजस्व वसूली इत्यादि साहित कई मसलों पर नये राज्य में नये और उपयोगी ढंग से विचार करने की आवश्यकता है। जमीन से जुड़ा मसला, एक आम छत्‍तीसगढ़िया के चूल्हे से जुड़ा प्रश्‍न है उस पर बनने वाले संपूर्ण नियम और कायदे कानून उसे ही प्रभावित करते हैं और ये प्रभावित करेंगे नये छत्तीसगढ़ को गढ़ने के प्रयासों की भी.....

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