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एकता परिषद भू अधिकार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अहिंसात्मक जन आंदोलन है. लोगों की आवाज सुनी जाए इसके लिए एक बड़े पैमाने की राष्ट्री अभियान की नींव रखी गयी थी, जिसे जनादेश 2007 कहा गया, जिसके माध्यम से 25 हजार लोगों ने राष्ट्रीय राजधानी तक पहुंच कर अपनी आवाज बुलंद की.

Sunday 15 May 2011

राजस्थान में आदिवासी अधिकारों की अनदेखी

सामाजिक अधिकारिता के कानूनों के होने भर से किसी समुदाय के सशक्तीकरण की गारंटी होती तो राजस्थान का आदिवासी समुदाय ना तो शिक्षा के बुनियादी अधिकार से वंचित रहता और ना ही अपनी जीविका के जरुरी साधन जमीन से।

मिसाल के लिए इन तथ्यों पर गौर करें।राजस्थान की कुल आबादी में आदिवासी समुदाय की तादाद १२.४४ फीसदी है और साक्षरता-दर है ४४.७ फीसदी जबकि सूबे की औसत साक्षरता दर इससे कहीं ज्यादा ऊंची(६१.०३ फीसदी) है। क्या शिक्षा का अधिकार कानून के बाद इस स्थिति में सुधार आ सकता है।इसकी संभावना थोड़ी धूमिल दिखाई देती है क्योंकि ८१.७ प्रतिशत आदिवासी छात्र-छात्राएं दसवीं से पहले ही पढाई छोड देते है और हाल ही सरकार द्वारा (जुलाई २०१०) करवाये गये चाइल्ड ट्रेकिंग सर्वे के अनुसार आदिवासी क्षेत्र में सबसे अधिक (६ से १४ वर्ष की आयु के) बच्चे विद्यालयों से ड्राप-आउट या अनामांकित है।इसका बड़ा कारण है प्रशासनिक उपेक्षा।

राजस्थान में आदिवासी समुदाय के बीच गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने की मांग करते हुए आदिवासी अधिकार मंच द्वारा कहा गया है कि सूबे के आदिवासी बहुल जिलों उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, सिरोही, प्रतापगढ, सवाईमाधोपुर, कोटा, बांरा और बूंदी में आज भी शिक्षकों के १११९३ पद रिक्त पडे हैं। आदिवासी क्षेत्रों में अधिकतर प्राथमिक विद्यालयों में एक शिक्षक ही नियुक्त है। इसकी वजह से निजी अवकाश और राष्ट्रीय कार्यक्रमों जैसे जनगणना, पल्सपोलियो, चुनाव और कई तरह के सर्वे कार्यों के दौरान विद्यालय बंद रहते है। फिर आदिवासी क्षेत्रों के विद्यालयों में अधिकतर अध्यापक शिक्षामित्र, पैराटीचर, शिक्षा सहयोगी और प्रबोधक की हैसियत से काम कर रहे हैं जिनकी योग्यता है- आठवीं से दसवीं पास।

राजस्थान के आदिवासी समुदाय के बीच प्राथमिक शिक्षा के हालात एक जिस प्रशासनिक उपेक्षा का संकेत करते हैं उसका एक पहलू आदिवासियों को उनकी जीविका से वंचित करने से भी जुड़ता है। आदिवासी अधिकार मंच द्वारा जारी एक और ज्ञापन में कहा गया है कि सूबे के आदिवासी बहुल दक्षिणी और पूर्वी इलाके में शहरों के आसपास पड़ने वाली अनुसूचित जनजातियों की जमीन भू-माफिया के हाथो गैर-आदिवासियों को आवासीय या व्यावसायिक उपयोग के लिए धड़ल्ले से बेची जा रही है जबकि कानून में इस बात की स्पष्ट मनाही की गई है।

राजस्थान में आदिवासी समुदाय के भूमि-अधिकारों के अन्तर्गत पांचवी अनुसूची के प्रावधानों के अनुसार राज्यपाल को विशेष अधिकार दिए गए हैं ताकि आदिवासी समुदाय की भूमि किसी गैर-आदिवासी को हस्तांतरित नहीं की जा सके। एक और कानूनी उपाय राजस्थान काश्तकारी अधिनियम-1955 का है जिसमें धारा ४२ बी जोड़कर इस बात को सुनिश्चित किया गया है कि अनूसूचित-जाति और जनजाति किसानों की जमीन किसी गैर अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति को ना तो बक्सीस के तौर पर दी जा सके ना ही वसीयत रुप में।

पेसा कानून में इस बात की पूरी व्यवस्था है कि देश के आदिवासी-बहुल इलाकों में जनजातियों की सांस्कृतिक पहचान, परंपरागत मान्यताएं और स्वशासन की सामुदायिक व्यवस्था अपनी निरंतरता में बनी रहे लेकिन क्या जमीन पर यह सपना साकार हो पाया है। राजस्थान का उदाहरण इसका नकारात्मक उत्तर देता है। राजस्थान आदिवासी अधिकार मंच द्वारा जारी विज्ञप्ति के अनुसार पेसा कानून राजस्थान की विधान सभा में १९९९ में पारित किया गया लेकिन विसंगतियों के साथ। और लागू होने के १२ साल बाद भी, इसके क्रियांवयन के लिए कोई ठोस नीति नहीं अपनायी जा सकी।ऐसे में राज्य के आदिवासी बहुल इलाके स्वशासन के तर्क से अपने सामुदायिक फैसले खुद लेना चाहें तो कानून के रहते भी नहीं ले सकते।

गुजरे 16 मार्च को राजस्थान के जयपुर में उद्योग मैदान के नजदीक स्टैच्यू सर्किल पर राजस्थान आदिवासी अधिकार मंच की तऱफ से सूबे में जनजातीय के सशक्तीकरण से संबंधित वनाधिकार कानून, पेसा(पंचायत एक्सटेंशन टू शिड्यूल एरिया) कानून के अमल में हो बदइंतजामी सहित आदिवासी अधिकार के कई मुद्दों पर चर्चा की गई। चर्चा में बी डी शर्मा, केबी सक्सेना, अरुणा राय और निखिल डे सहित कई नामचीन सामाजिक कार्यकर्ताओं ने शिरकत की। इस चर्चा में इन्क्लूसिव मीडिया फॉर चेंज की टोली ने शिरकत की। चर्चा की विस्तृत जानकारी के लिए नीचे राजस्थान आदिवासी अधिकार मंच की तरफ से राजस्थान सरकार के मुख्य सचिव को लिखे गए पत्र के मूल प्रारुप को दिया जा रहा है. साथ इस विषय से संबंधित कुछ जरुरी लिंक दिए गए हैं---

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