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एकता परिषद भू अधिकार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अहिंसात्मक जन आंदोलन है. लोगों की आवाज सुनी जाए इसके लिए एक बड़े पैमाने की राष्ट्री अभियान की नींव रखी गयी थी, जिसे जनादेश 2007 कहा गया, जिसके माध्यम से 25 हजार लोगों ने राष्ट्रीय राजधानी तक पहुंच कर अपनी आवाज बुलंद की.

Sunday 15 May 2011

आदिवासी विकास से विस्थापन

आजादी के बाद योजनाबठ्ठ विकास से आर्थिक क्षेत्र में विशेषतया ऊर्जा, खनिज, भारी उद्योग, सिंचाई तथा आधारभूत विकास कार्यों में क्रांतिकारी प्रगति तो हुई लेकिन इस प्रगति के लिए उन लाखों लोगों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी, जिन्हें बिना इच्छा के अपनी जमीन और रोजी-रोटी से हाथ धोना पड़ा। आजादी के बाद पहले पांच वर्षों में लगभग ढाई-लाख लोगों में से पचीस प्रतिशत लोगों को विस्थापित होना पड़ा। उनका थोड़ा बहुत पुनर्वास तो किया गया लेकिन वह बहुत ही अपर्याप्त था। उनके मूलभूत अधिाकार जो उनकी जमीनों के साथ जुड़े हुए थे, जैसे जंगल व जंगल उत्पाद तथा जमीन के खुंटकट्टी या कोड़कर जैसे विशेष अधिाकार, पुर्नवसित हाने पर भी उन्हें प्राप्त नहीं हो पाए।

हर देश में विकास नीति का लक्ष्य प्राय: यही होता है कि इसके तहत सबको विकास का समान अधिाकार मिले लेकिन हमारे देश में आज आजादी के बाद के छठे दशक में भी हमारा अनुभव यही जाहिर करता है कि इस नीति से कुछ लोगों का विकास अंसख्य लोगों की कीमत पर हुआ है, खासकर आदिवासियों की कीमत पर। विकास नीति के निधर्रित लक्ष्य के अनुसार विभिन्न क्षेत्रों में बन रही परियोजनाओं के माधयम से पूरे समाज को प्रगति की राह पर लाना था लेकिन हुआ ठीक इसके विपरीत। अमीर और गरीब, साधान-संपन्न और साधान-विहीन के मध्य की खाई पटने की बजाय और भी गहरी होती गई है। राष्ट्रहित के नाम पर बेशुमार लोगों की जमीनें अधिाग्रहित कर उन्हें न केवल विस्थापित किया गया बल्कि उनके संदर्भ में, संविधान में प्रदत्ता मूलभूत अधिाकारों का भी उल्लंघन किया गया। आवश्यकता थी कि विकास परियोजनाओं से प्रदेश अथवा क्षेत्र का आर्थिक संतुलन न बिगड़े और सभी संसाधानों लाभ सभी वर्गों को प्राप्त हो लेकिन ऐसा नहीं। विकास के बदले विशेष क्षेत्रों व प्रदेशों की जनता का विध्वंस ही हुआ। सरकार इतने पर भी नहीं रूकी, उसके द्वारा 1998 में भूमि अधिाग्रहण संशोधान विधोयक, पुनर्वास बिल, फारेस्ट बिल और बायो डायवर्सिटी बिल लाए गए।

'भूमि-अधिाग्रहण संशोधान विधोयक' तो इसलिए लाया गया ताकि शासक वर्ग बहुराष्ट्रीय कंपानियों को मनचाही जमीन जल्दी से जल्दी उपलब्ध सके यानि विस्थापन की प्रक्रिया तेज़ की जा सके। छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट जैसे कानूनों के तहत आदिवासियों की जमीन लेने पर रोक थी। इसके प्रावधानों से मुक्ति पाने के लिए भी सरकार ने भूमि-अधिग्रहण अधिनियम में मनचाहे संशोधन किए, मसलन, 1894 के अधिनियम में जमीन अधिाग्रहण के खिलाफ आपत्ति की अवधि 30 दिन थी, उसे घटाकर 21 दिन कर दिया गया। पहले भूमि-अधिग्रहण के नोटिस की अवधि 6 माह बीत जाने पर नए नोटिस की सीमा 3 वर्ष थी, उसे घटाकर 6 माह कर दिया। पहले डुगडुगी पिटवाकर गांव में मुनादी कराई जाती थी ताकि सभी गांव वालों को इसकी सूचना मिल जाए लेकिन संशोधित अधिनियम में केवल अख़बारों और गजट से सूचित करने का प्रावधान कर दिया गया है। गजट अखबार गांव के अधिकांश लोग नहीं पढ़ पाते।

''भूमि-अधिग्रहण बिल'' और ''पुनर्वास'' बिल दोनों एक ही मंत्रालय से निर्गत हुए हैं, जो एक-दूसरे के विपरीत हैं। एक जनविरोधी है, तो दूसरा जन-पक्षधार लेकिन इस कानून में भी विस्थापितों के पुनर्वास की बाध्यता नहीं है। ये तथ्य जाहिर करते हैं कि सरकार अपनी उदार नीति के तहत बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाने की जल्दबाजी में जमीनें लेने की हड़बड़ी में है, खासकर आदिवासियों की क्योंकि देश के संसाधनों का बड़ा हिस्सा उन्हीं क्षेत्रों में पड़ता है, जहां आदिवासी बहुतायत में निवास करते हैं।

सरकार की इस नीति के कारण 1951 और 1995 की अवधिा में झारखंड में 50 हजार एकड़ भूमि पर 15 लाख लोग विस्थापित हुए हैं, जिनमें 41.27 प्रतिशत आदिवासी हैं। ये बात धयान देने योग्य है कि रक्षा परियोजनाओं में विस्थापित हुए आदिवासियें की संख्या 89.7 प्रतिशत है और मार्के की बात यह है कि इन परियोजनाओं में विस्थापितों को नौकरी देने का कोई प्रावधान नहीं है। इसी तरह जल संसाधान परियोजानाओं के विस्थापितों में आदिवासियों की संख्या 75.2 प्रतिशत है और इनमें भी जमीन के बदले नौकरी देने का प्रावधान नगण्य है। कोयला खदानों के लिए हजारों एकड़ जमीन पहले निजी मालिकों ने ली, फिर सरकार ने अधिग्रहण कर ली कोयला के लिए तो सरकार ने एक नया कानून भी बनाया क़ोल बियरिंग एरिया एक्ट 1957, जिसके तहत वह अधिागृहीत- भूमि को जबरदस्ती भी कब्जे में ले सकती है। इस कानून के चलते आदिवासी किसानों पर कहर बरपाया गया। उसके बाद खदानों का राष्ट्रीयकरण्ा हुआ, तो पुरानी खदानों के साथ-साथ नई खाली पड़ी जमीन भी कोयला कंपनी ने बिना नोटिस दिए, कब्जा करनी शुरू कर दी। निलहे अंग्रेजों की तरह उन्होंने ग्रामीणों को बहला-फुसला कर, नौकरी के झूठे वायदे करके, बिना सरकारी नोटिस, जमीनें कब्जे में ले लीं और खनन कार्य शुरू कर दिया। वर्षों तक किसानों के नौकरी और पुनर्वास के मामले को नजरंदाज किया गया। बिहार विधान-सभा में सवाल उठे, सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया, उस इलाके में जबरदस्त आंदोलन हुए, तब जाकर सरकार ने तीन एकड़ पर नौकरी और मुआवजे की राशि देने के आश्वासन दिए, जिन्हें भी वर्षों तक लटकाए रखा। अब तो नई नीति के तहत जमीन के बदले नौकरी देना भी बन्द कर दिया है। किसानों के खेत खदानों में बदल गएघर-बाड़ी पर डोजर चल गएमहुआ और साल के गछ उखाड़ दिए गएवनपति से रैयत बना आदिवासी किसान अंतोगत्वा विस्थापित बन गया। जीने के लिए वह अपनी ही जमीनों से खतरे उठाकर, कोयला चुराकर बेचने को मजबूर हो गया। गैर कानूनी खदानों के तते लग गए। मजदूर बने आदिवासी किसान बेनम-गुमनाम कोल माफिया के चंगुल में फंसकर, कोयला चुराने लगे। खदानें धांसती रहीं और सैकड़ों की तदाद में वे मरते रहे। उनकी लाशों को उठाने वाला कोई नहीं क्योंकि जो भी लाश को पहचानता उसे भी चोरी के जुर्म में अंदर बंद कर दिया जाता था। लावारिस लाशें सड़ने लगीं। आज भी कई लाशें उन खदानों में दबी पड़ी हैं, बाहर पत्थरों के बीच उनके जूते-चप्पल, कमीज़ वाट जोह रहे हैं। अच्छा-खासा इज्जतदार, खाता-पीता वनपति आदिवासी किसान, गांवों की सामूहिक जमीन का भागीदार पहले मजदूर बना, फिर विस्थापित और अब कोयलाचोर। उसकी जमीन, जंगल, संस्कृति और भाषा सब खत्म की जा ही हैं और ये सब हो रहा है 'राष्ट्रहित के नाम पर,। ट्रकों में चोरी कर कोयला जाता है, तो कोई नहीं पकड़ता लेकिन साइकिल पर दो टन कोयला लादकर, साठ किलोमीटर घाटी चढ़कर कुजू से रांची पहुंचने वाला मजदूर चोरी के इलजाम में पकड़ कर हवालात में बंद कर दिया जाता है, जबकि उसका पूरा परिवार उसकी इसी कमाई पर निर्भर है।

हाल ही में अपनी औद्योगिक नीति के तहत झारखंड सरकार ने रांची से बहिरागोड़ तक चार लेन की 300 किलोमीटर लंबी एक सड़क बनाने का निर्णय लिया है। इस सड़क के दोनों तरफ 10-10 किलोमीटर तक जमीन अधिागृहित करने की योजना है। ये ज़मीनें आदिवासियों की ही हैं। इस योजना को लागू करने पर अनुमानत: तीन लाख लोग विस्थापित होंगे। कहां जाएंगे ये लोगक्या करेंगे? सरकार बेपरवाह है, इसलिए अब लोगों ने बंदूकें उठा ली हैं।

उधर सरकार की सार्वजनिक सरकारी संस्थाओं के निजिकरण करने की नीति के चलते मजदूरों की भारी छटनी जारी है। झारखंड में सबसे ज्यादा सार्वजनिक संस्थान हैं, जिनमें अकेले कोयला-क्षेत्र में ढाई लाख से ऊपर मजदूर कार्यरत हैं। फलस्वरूप मजदूरों की सबसे ज्यादा छटनी झारखंड में ही हो रही है। आदिवासी यहां कोयला चोरी करने पर मजबूर होकर रोज जेल की हवा खाता है। वह या तो कुली-मज़दूर बन जाता है या फिर कोयलाचोर! और जब ये भी नहीं हो पाता तो लौटकर अपना हिसाब-किताब चुकाने के लिए बंदूक उठाकर जंगलों में चला जाता है, कोई विकल्प नहीं उसके पास। पता नहीं देश और समाज उनकी सुधा कब लेगा? कब कोई विकल्प देगा?

देश में आदिवासियों की मुख्य समस्या विस्थापन रही है। वे पहले भी खदेड़े जाते रहे हैं, आज भी खदेड़े जा रहे हैं। ये खदेड़ना सदियों से चालू है, बस केवल रूप या तरींका बदल गया है। वे उजड़ रहे हैंज़ंगल, जल, जमीनऌन तीन महत्वपूर्ण मूल अधिाकारों से वे वंचित हो रहे हैं और विडंबना यह है कि ये सब हो रहा है उनके विकास या उनकी स्थिति में सुधाार के नाम पर,। आज जंगल में उनके प्रवेश पर रोक है। जिस धारती पर वे बसते हैं, उसके गर्भ में खनिज है यानि सम्पदा हैऊपर नदियां और जंगल हैंपर वहां उनका प्रवेश वर्जित है। नदियां कोयले की धाूल से काली होकर प्रदूषित हो गईंउनका पानी किसी काम का न रहाज़ंगल कट गए, जमीन गढ़ा-पोखर बन गईख़ेत धांस गए पानी के स्रोत सूख गए या नीचे चले गए और पहुंच के बाहर हो गए। आग पर बैठा है आज इस क्षेत्र का आदमी। धारती के नीचे आग लगी हैक़ब धांस जाएगी धारतीपता नहीं!

देश आजाद होने से पहले ही अंग्रेजों ने आदिवासियों के जंगल में प्रवेश पर रोक लगाकर आदिवासियों को वहां से ही खदेड़ने की योजना लागू करनी शुरू कर दी थी और इन्हें जंगल की उपज के सब अधिाकारों से वंचित कर दिया था। दरअसल सरकार की ये वन-नीतियां, वन-प्रबंधान और वन-कानून, उसकी स्वार्थपूर्ण तथा छल-बल की अभिरुचियों पर आधाारित थीं। आजादी के बाद औद्योगिकीकरण तथा व्यापारियों की धानलिप्सा, इनका आधाार बन गई थी। इस प्रकार अपने ही देश की सरकार द्वारा जंगलवासियों को उनके परंपरागत वन-अधिाकारों से लगातार वंचित ही नहीं किया जाता रहा बल्कि जंगल का व्यवसायीकरण होने के कारण, उनके जंगलों को बर्बरतापूर्वक उजाड़ा भी जाने लगा था। इस प्रकार आजादी के बाद की सरकार ने न केवल साम्राज्यवादीसरकार के सिध्दांतों को दोहराया बल्कि उन्हें और भी सशक्त और सबल बनाया, जिसका नतीजा हुआ वन में रहने वाले आदिवासियों का खदेड़ा जाना, और 'जंगल पर राज्य के वन-विभाग का एकाधिाकार स्थापित होना।' सन् 1960-61 में ढेबर कमीशन (अनुसूचित क्षेत्र और अनुसूचित जनजाति कमीशन) ने इस सरकारी-नीति पर निम्नलिखित टिप्पणी की थी''ऌस तरह आदिवासी, पहले जो अपने को वनपति समझता आया था, एक सुनियोजित प्रक्रिया द्वारा एक रैयत के दर्जे में उतार दिया गया और वन-विभाग की दया पर छोड़ दिया गया। उनके बसाए गांव, वन के ही मौलिक अंग न रहकर विभागीय वरदहस्त पर टिक गए। जन-जातियों के परंपरागत वन-अधिाकार की मान्यता की इतिश्री कर दी गई। 1894 में, जिन्हें अधिाकार एवं विशेषाधिाकार माना गया, वे 1952 में अधिाकार एवं रियायत में तब्दील हो गए। अब तो उन्हें 'रियायत' मात्रा समझा जाता है।''(वॉल्यूम-1पृ.-129-30, दिल्ली पब्लिकेशन मैनेजमैंट, 1961) स्पष्ट है, अब वे अधिाकार-विहीन होकर सरकार की दया पर निर्भर हैं, जिसे रियायत कहा जा रहा है।

आदिवासियों के विकास, उनकी भाषासंस्कृति तथा उनकी पहचान की रक्षा के केन्द्र में मुख्यत: ज़मीन है। झारखंड हो या छत्ताीसगढ़ अथवा अन्य आदिवासी बहुल प्रदेश, वहां की ग़रीब जनता के लिए भूमि का प्रश्न महत्वपूर्ण है।

भूमि से संबंधिात सबसे महत्वपूर्ण समस्या है 'भूमि का अलगाव' ;स्ंदक ।सपमदंजपवदध्द की। ब्रिटिश शासन द्वारा 1793 की स्थायी-बंदोबस्ती के माधयम से एक नए प्रकार की ज़मींदारी व्यवस्था आदिवासियों पर थोप दी गई थी। इस व्यवस्था के चलते ज़मीन सामूहिक-सम्पत्तिा से एकाएक निजी-सम्पत्तिा में तब्दील हो गई। इस व्यवस्था के अंतर्गत ब्रिटिश-सरकार द्वारा विभिन्न सर्वे सेटलमेंट के माधयम से भूरिकॉर्ड तो तैयार किये गये, उनका हस्तांतरण्ा जमीन के निजी सम्पत्तिा बन जाने के बाद शुरू हो गया। 1793 से शुरू इस प्रक्रिया ने सामूहिकता पर आधाारित आदिवासी जीवन-पठ्ठति को झकझोर कर रख दिया। फलस्वरूप, विद्रोह की भावना बढ़ी और आदिवासी हिंसात्मक विरोधा के लिए बाधय हुए। 1832 में प्रसिध्द 'कोल-विद्रोह' 'सरदारी लड़ाई' और 1857 के बाद, 1895 में बिरसा मुंडा ने विद्रोह का बिगुल फूंका और खूंटकट्टीदारों की ज़मीन और वन अधिाकारों पर जमींदार, ठेकेदार और सरकार के अतिक्रमण के खिलाफ संग्राम शुरू कर दिया। वनों का आरक्षण ही विद्रोह का तात्कालिक कारण था क्योंकि इस आरक्षण के लिए आदिवासियों को, उनके पैतृक गांवों से भी गैर-कानूनी ढंग से बर्बरतापूर्वक बेदखल कर दिया गया था।

तत्कालीन ब्रिटिश सरकार को आदिवासी हितों की रक्षा हेतु 'छोटानागपुर टेनेन्सी एक्ट' 1908 तथा संताल परगना के लिए रेगुलेशन प्प्प्, 1872 लाना पड़ा। आज़ादी के बाद यही रेगुलेशन प्प्प् 1949 में विकसित होकर 'संताल परगना टेनेन्सी' एक्ट बना। 1969 में 'शिडयूल एरिया एक्ट' लाया गया। उपर्युक्त काश्तकारी कानूनों से, यद्यपि जमींदारी व्यवस्था समाप्त नहीं हुई, फिर भी, जमींदारों द्वारा अंधााधाुन्धा लगान बढ़ाये जाने तथा ज़मीन पर उनके निरंकुश अधिाकारों पर कुछ लगाम लगी, जिससे संताल परगना एवं छोटानागपुर के रैयतों को कुछ सुरक्षा मिली और उनकी ज़मीन बिकने पर रोक लगी।

आज़ादी के बाद आदिवासियों की रक्षा करने की बजाए, भारत सरकार ने अंग्रेजों द्वारा बनाए कानूनों को और भी सख्ती से लागू करना शुरू कर दिया। सरकार के, इस कानून के कारण सिंहभूम में 1978 में जंगल आंदोलन छिड़ गया। 1978 और 1985 के बीच बिहार में 18 पुलिस गोली-कांड हुए तथा 450 आदिवासियों के घर उजाड़ दिए गए। हजारों आदिवासियों को झूठे मुकदमों में फंसाया गया। 14 अप्रैल, 1984 को उच्चतम न्यायालय के चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट, सिंहभूम द्वारा भेजी गई रिपोर्ट के अनुसार 14 हजार आदिवासियों पर 5,160 मुकदमें, सिंहभूम जिले की अदालत में लंबित थे, जिनमें से कुछ 1960 से ही लंबित थे। दरअसल आदिवासियों की त्राासदी का मुख्य कारण हैउनका पूर्वजों के गांवों से विस्थापन और जमीन तथा जंगलों के परंपरागत स्वामित्व से वंचित किया जाना।

1984 में 'नेशनल रिपोर्ट सेंसिंग एजेंसी' द्वारा किया गया, अधययन यह दर्शाता है कि सत्तार के दशक से अस्सी के दशक तक आते-आते भारत के वनों का विस्तारण 16.9 से घटकर 14.1 रह गया, यानि हर बरस औसत 10 लाख 30 हजार हेक्टेयर वनों का नुकसान हुआ। बाद में यह घटकर केवल 10 रह गया। आदिवासी मुख्यत: जंगलों पर ही निर्भर रहता है। इनकी आबादी 5.38 करोड़ है और यह बरसों से प्रकृति के साथ मिलकर रहता रहा है। इनके जीविकार्जन के साधान जंगल ही हैं, इसलिए जंगलों के द्रास के चलते भी आदिवासियों के रोजगार घटे। जंगल और आदिवासियों की संस्कृति तथा जीवन का अन्योन्याश्रित संबंधा रहा है। इधार, इस सहजीवी आत्मीयता में कमी आई है। 'ट्राइबल रिसर्च एंड टे्रनिंग सेंटर' चाईबासा के मैथ्यू अरीपरमपिल ने इस कमी को दूर करने के लिए यह कहा कि तभी संभव होगा जब आदिवासी वन-प्रबंधान में आर्थिक रूप से साझेदार तथा जंगल के उत्पादकों में भागीदार बन पाएंगे।' ('जंगल और आदिवासी: शोषण के शिकार', मैथ्यू अरीपरमपिल, पृ.-प्ट)

आदिवासी और जंगल के अन्योन्याश्रित संबंधा के बारे में तथा जनजातियों के सामाजिक संगठनों एवं जंगलों के साथ अटूट रिश्तों के बारे में, डॉ. रॉय बर्मन लिखते हैं''साम्राज्यवादी शासन काल में इस प्रतीकात्मकसंबंधा को तब गहरा धाक्का लगा, जब जंगल को अधिाकृत मुनाफे का स्रोत मात्रा समझा जाने लगा और मानव-निवास तथा विस्तृत जीवन परिसर के बीच की जीवंत कड़ी के रूप में इसे अनदेखा कर दिया गया।'' (वही, पृ. 3)

इस प्रकार, आजादी के बाद भारतीय शासकों ने जंगल को एक मुनाफे की वस्तु बना दिया और सरकारी अधिाकारियों, नेताओं, ठेकेदारों ने मिलकर बर्बरतापूर्वक उसे बर्बाद किया। ठेकेदारों द्वारा जंगलों की निर्मम कटाई की प्रतिक्रियास्वरूप ही उत्ताराखंड में 'चिपको आंदोलन' चला। बिहार-झारखंड में सखुआ के जंगल काटकर सागवान और सफेदे (युकेलिप्टिस) के जंगल लगाने का जबरदस्त विरोधा हुआ क्योंकि मिश्रित जंगल आदिवासी को रोजगार, पानी और वर्षा देता है। वह कटाव का संरक्षण तथा पानी के स्रोतों की रक्षा भी करता है, जबकि सफेदे का जंगल पानी के स्रोत को सुखा देता है। सखुआ का पेड़ अकाल में भी उनके जीवन-की रक्षा करता है, उसके बीजों से पेट भरकर वह जिंदा रहता है। बीड़ी-पत्तो के पेड़ उसे रोज़गार देते हैं। कुसुम के बीज तेल देते हैं, तो महुआ के फल और फूल भोजन और पेय दोनों। उसकी, 'गुठली', 'तेल मुहैया करती है। पलाश का पेड़ लाह (लाख) गोंद, और 'रंग' से रंग देता है 'आदिवासी का अन्दर और बाहर घर और आंगन।' इसके विपरीत सागवान का पेड़ बड़ी-बड़ी टालों की तिजोरियों को भरता है। वह न तो जंगलवासी का पेट भरता है और न ही उसे रोज़गार देता है, उल्टे व्यापारी व जंगल माफिया कीमती पेड़ उससे सस्ते दामों पर खरीद कर, ऊंचे दामों पर बेचता है और करोड़पति बन जाता है। पेड़ काटने के आरोप में आदिवासी दण्ड भरता है या जेल जाता है।

सरकार की ऐसी ही नीतियों के कारण आदिवासी जमीन के मालिक बनने की बजाय, पहले मजदूर बने, फिर बंधाुआ मजदूर। पहले वे वन-पति, भूमि-पति और किसान थे। उनके अपने खेत थे, जिन पर सामूहिक खेती, और होती थी परस्पर सहयोग से झूम की खेती होती थी। व्यक्तिगत 'संपत्तिा' शब्द से वे अनजान थे। आजादी के बाद विकास की बड़ी-बड़ी योजनाएं बनीं, जिनके घर उजड़े, जिनके खेत और गांव डूबे, वे आदिवासी कहीं स्थाई रूप से बस नहीं पाए।

बस्तर के ही इलाके में टाटा कंपनी ने वहां के राजा से बहुत ही सस्ती दर पर कौड़ियों के भाव हजारों एकड़ जमीन लेकर बड़ी-बड़ी खदानें खोली थीं। टाटा कम्पनी ने मजदूरों के रहने के लिए तो घर बनाए पर गांव के स्थानीय लोग, न तो रोजगार पा सके और न ही कंपनी ने जनता के हितार्थ वहां स्कूल व अस्पताल ही खोला। कुछ वर्षों बाद टाटा कंपनी बोरिया-बिस्तर समेटकर बिहार में जमशेदपुर चली गई, जहां उसने विशाल व्यापारिक साम्राज्य स्थापित लिया। वह अपने पीछे छोड़ गई, असंख्य गढ़े, पोखरियां, टूटे मकान और खेती के अयोग्य ऊबड़-खाबड़ जमीनें, जिन पर बाहर के लोगों ने कब्जा करके अपने घर-बार बना लिए, दुकानें खोल लीं और व्यापार-धांधाा शुरू कर दिया। वहां के आदिवासी उजड़कर विस्थापित हो गए और रोज़गार की खोज में अंडमान-निकोबार, कर्नाटक, असम, दिल्ली, हरियाणा, बिहार और पंजाब पहुंच गए, जहां के खेतों, चाय-बागानों, पत्थर खदानों, सड़कों या इटा-भट्टों में बंधाुआ मजदूर बनकर।

आदिवासी समाज ने बहादुरी की विरासत अपने पूर्वज से पाई है! झारखंड राज्य की लड़ाई में जाने क्यों इनके नेता कामयाब मुहिम चलाने के बाद भी उसे अंजाम नहीं दे पाए। वे अपनी लड़ाई छोड़कर सत्ताा से सुलह करते रहे। वे बिक गए या डर गए, यह तो कहा नहीं जा सकतावे जनता की नज़र में गिर जरूर गए। उसी का फल है कि वृहत राज्य से घटकर एक छोटा राज्य तो बना झारखंड लेकिन यह आदिवासियों के आधार पर नहीं बना। वह बना? क्षेत्रिायता के आधाार पर झारखंडी संस्कृति, के नाम जिसके नाम पर बहुत से छद्म झारखंडी घुस गएअौर घुस गए वे, जिन्होंने आदिवासियों की जमीनें हड़पी थीं, जिन्हें आदिवासी 'दिकु' कहते हैं। आज, उन्हीं के कब्जे में चला गया है झारखंड। तब कौन लौटाएगा जमीन? सत्तााधाारीसियों के विकास के लिए नहीं बल्कि क्षेत्र और जातीय आधाार पर अपने वोट बैंक सुरक्षित कर, आदिवासियों को विस्थापित करने पर तुले हैं। 'अपने ही घर में आज बेगाना है आदिवासी!' आज परदेसी बन गया है, वह। अल्पसंख्यक हो गया है। छोटानागपुर और संथाल परगना के 'टैनेंसी-एक्ट' में बदलाव लाकर, बड़ी-बड़ी कंपनियों को जमीन देने की योजना बनाई जा चुकी है। फिजी जैसी स्थिति हो रही है झारखंड की।

आदिवासियों द्वारा देश के विभिन्न भागों में अनेक अभियान चलाये गये। इनमें से अधिाकांश आंदोलन, विस्थापन या भूमि से उनका कब्जा छिनने, साहुकारों एवं जमींदारों द्वारा क़ानूनों का अपने फ़ायदे के लिए दुरूपयोग करने से उत्पन्न असंतोष से पैदा हुए। 'कहीं अधिाक तो कहीं कम, पर सब जगह विद्रोह हुए। पूर्व में आदिवासियों का सम्पूर्ण भूमि पर क़ब्ज़ा था परन्तु कालान्तर में यह भूमि उनके हाथ से गैर-जनजातीय लोगों के हाथों में चली गयी। ब्रिटिश भारत की सरकार ने इसके दो कारण बताये थे। एक, साहुकारी-प्रथा के लागू होने से जनजातीय लोगों का शोषण किया जाना, दूसरा, गैर-जनजातियों द्वारा व्यापार में कपटपूर्ण एवं धाूर्तता का व्यवहार किया जाना। इस प्रकार, आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर, निर्धान, निरक्षर एवं सीधो-साधो आदिवासी लोग, आर्थिक दृष्टि से सक्षम एवं धाूर्त गैर-जनजातीय लोगों के हाथों की कठपुतली बन गये। तीसरा कारण, उस समय की साम्राज्यवादी- सरकार स्वयं थी, जिसने साम्राज्यवादी दोहन की योजना के लिए ऐसी प्रशासनिक, वैधानिक एवं भूमि-व्यवस्था का निर्माण किया, जिसके अंतर्गत आदिवासियों का शोषण अनिवार्य था।

निश्चय ही, आदिवासी लोगों को वह सब कुछ प्राप्त कराया जाना चाहिए, जो मूल रूप में उनका था पर जिन्हें गैर-जनजनतीयों के शोषण के कारण उससे वंचित होना पड़ा। यही कारण है कि संविधाान निर्माताओं ने दूरदृष्टि एवं व्यापक परिणामों को धयान में रखते हुए पांचवी अनुसूची के पैरा 5 (2) में यह उपबंधा किया कि राज्यपाल अन्य बातों के साथ-साथ संविधाान में अन्य किसी उपबंधा के होने पर भी अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि-हस्तांतरण्ा का प्रतिरोधा कर सकेगा या उस पर प्रतिबंधा लगा सकेगा। इसके आधाार पर अंग्रेजों के जमाने का 'छोटानागपुर काश्तकारी कानून' 1908 लागू है और प्रभावकारी हो सकता है लेकिन क़ानून बना देने से ही सब कुछ ठीक नहीं हो जाता और न ही कानून के उल्लंघन करने वालों को रोका जा सकता है। इस कानून का मतलब है पूर्व में, जिस तरह आदिवासियों की जमीनें छीनी या हड़पी गयी हैं और आने वाले कल में भी जो छीनी जा सकती हैं, पर रोक लगे। क्या कानून बना देने से ही भूमि के हस्तांतरण पर रोक लग गई? उत्तार है, नहीं। सच तो यह है कि कानून बनाने वाले ढांचे की इच्छाशक्ति और ईमानदारी न होने के कारण, इन कानूनों के रहते हुए भी, आदिवासियों की जमीनें हस्तांतरित होती रही हैं। वास्तव में शुरुआत ही गलत रही है। सिर्फ कानून बना देना किसी समस्या का इलाज नहीं है। दरअसल सीमित अथों में ही आदिवासी हितों की रक्षा करने वाले कानूनों की हिफाज़त तथा इनके प्रभावी अमल के लिए कभी भी कोई कठोर प्रशासनिक उपाय या प्रयास सरकार ने नहीं किया। बल्कि अभी तक तो शोषक-वर्गों द्वारा ही पुलिस एवं प्रशासन का इस्तेमाल इन कानूनों को निष्प्रभावी बनाने एवं विफल करने के लिए किया जाता रहा है।

संताल परगना काश्तकारी एवं छोटानागपुर काश्तकारी कानूनों के बनने के बाद भी भूमि का हस्तांतरण कानूनी एवं गैर-कानूनी, दोनों ही तरीकों से जारी रहा। संताल परगना के मुकाबले छोटानागपुर में आदिवासियों के हाथों से जमीन का छीना जाना आसान रहा है और अपेक्षाकृत ज्यादा बड़े पैमाने पर हुआ है। संताल परगना में भी सन् 1949 के पहले '12 साल के एडवर्स पजेशन' ;।कअमतेम च्वेमेपवदध्द के सिठ्ठांत के आधाार पर जमीन का हस्तांतरण अपेक्षाकृत आसान था, जबकि उस समय भी आदिवासी एवं गैर-आदिवासी सभी प्रकार के रैयतों के लिए जमीन की खरीद-बिक्री एवं किसी तरह का हस्तांतरण गैर-कानूनी था। जिस प्रकार सन् 1949 के 'संताल परगना काश्तकारी अधिानियम' में गैर-कानूनी तरीकों से हस्तांतरित जमीन की वापसी पर से समय-सीमा खत्म कर दी गई, उसी प्रकार 'छोटानागपुर काश्तकारी अधिानियम' में भी कम से कम आदिवासियों की गैर-कानूनी तरीके से हस्तांतरित जमीन की वापसी पर भी समय-सीमा (स्पउपजंजपवद) हटाये जाने की जरूरत है।

इन कानूनों के प्रावधानों के अंतर्गत ही लगान बकाये के कारण रैयतों की जमीनें नीलाम की जाती रही हैं। 1930 एवं 40 के दशकों में लगान बकाये के चलते बड़े पैमाने पर लगान उच्छेदी के मुकदमों (त्मदज म्अपबजपवद ैनपजे) के माध्यम से किसानों की जमीन उनके हाथ से निकल गई। आजादी के पहले तथा बाद में उद्योग, खदान एवं तथा दूसरे विकास कार्यक्रम, जैसे सैनिक छावनी, फील्ड-फायरिंग रेंजों की स्थापना स्वं तथा की जंगल सीमाविस्तार से भी किसानों का जमीन से विस्थापन हुआ है।

झारखंड हो या छत्ताीसगढ़ या अन्य आदिवासी बहुल क्षेत्रऌनमें जमीन की प्रमुख समस्या भूमि के अलगाव की ही है, न कि वास्तविक जोतने वाले किसानों की बेदखली की। इसलिए यहां पर 'हड़पी हुई जमीनों को वापस करो' का नारा दिया गया लेकिन ठीक इसके विपरीत झारखंड की वर्तमान सरकार ने दोनों ही काश्तकारी-कानूनों की समीक्षा के लिए एक कमिटी का गठन इस उद्देश्य से किया है कि नई-आर्थिक-औद्योगिक एवं कृषि-नीति को लागू करने के लिए जमीन का हस्तारंण आसान बनाया जा सके।

जहां तक 'छोटानागपुर कास्तकारी अधिानियम, 1908, क़ा सवाल है, इसके अनुसार आदिवासियों की जमीन गैर-आदिवासी नहीं ले सकता। आदिवासी भी उपायुक्त की अनुमति से ही जमीन खरीद या बेच सकता है। दिगर किस्म की जमीन का हस्तारण गैर-कानूनी है। हां, आदिवासी किसी को भी सात वर्ष का 'भुगुत-बंधाक' दे सकता है। किन्तु सात वर्ष बीत जाने पर खातियानी रैयत के पक्ष में जमीन निर्मुक्त होने का कानून है। जरपेशगी की मियाद पांच साल की होती है। इस प्रावधाान में भी मियाद के बाद खतियानी रैयत के पक्ष में निर्मुक्त होने का कानून है लेकिन कानून को धाता बताते हुए सीधो-सादे आदिवासी किसानों से नब्बे साल, पंचानवे साल के लिए जरपेशगी लिखा ली गयी है। कहीं-कहीं तो ता-मियाद् जरपेराागी लिखा ली गई या जितने दिन, वह उस'जरपेशगीदार जमीन' का उपभोग करता रहेगा, उतनी अवधाी तक जमीन लिखा ली गई। इसी अवधिा में सर्वे जमीन का सर्वे होने परज़िसके कब्जे में जमीन है, वही उसका मालिक होगाक़े नियम के आधाार पर गैर-आदिवासी साहूकार, मालिक और सिकमीदार होक़र जमीन का मालिक बन बैठता है।

दूसरे, 'बिहार अनुसूचित क्षेत्र अधिानियम' '1969, छोटानागपुर टेनेन्सी, (संशोधान) अधिानियम '1969' के अधाीन भूमि-वापसी का प्रावधाान किया गया लेकिन इसमें खुद आदिवासी को आदिवासी होने का प्रमाण-पत्रा हासिल करना पड़ता है। इसके अलावा, वे उसे जमीन किस ढंग से हस्तांतरण की गई, उसकी किस्म, बिक्री-पत्रा (रजिस्टर्ड डीड) बंधाक, लीज, गिफ्ट, ठेका आदि का विवरण भी देना पड़ता है। यदि 30 साल से ऊपर की अवधिा तक जमीन हस्तांतरित रह जाए, तो उसकी वापसी आदिवासी रैयत को नहीं होगी।

तीसरे, 'अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिानियम' '1989' में आदिवासी भूमि के मालिक द्वारा बंधाकदार को बंधाक-भूमि पर कब्जा लेने एवं उसका उपभोग करने के लिए यह कहा गया है कि बंधाक-भूमि के हस्तांतरण पर निषेधा 'केवल एक अवधिा विशेष' के लिए है तथा इसका उद्देश्य यह है कि बंधाक लेने वाले को कम से कम उतनी अवधिा तक, तो बंधाक की गयी, भूमि का स्वयं उपभोग करना चाहिए, जब तक वह निषेधा लागू रहता है। परन्तु अनुभव से यह पता चलता है कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के, जिन लोगों की वह भूमि बंधाक के रूप में ली जाती है, वे अपनी गरीबी, अशिक्षा एवं असामान्य रूप से पिछडेपन के कारण, महाजनों से नियत समय पर अपनी जमीन वापस लेने में सामान्यत: अक्षम साबित होते हैं। महाजन-वर्ग इस संबंध में पुलिस, प्रशासन-तंत्रा एवं अपराधिाक तत्वों का भी इस्तेमाल करता रहा है। महाजनों से निरसित कराकर और उन हस्तांतरियों से भूमि पुन: ग्रहित कराने के बावजूद सरकार ने आदिवासियों को उस भूमि पर कब्जा नहीं दिलाया। इस तरह संविधाान के 'अनुच्छेद 19' (1) 'एफ' के अंतर्गत मौलिक अधिाकार का हनन हुआ है।

चौथे, बंधाक दी गयी भूमि-वापसी के कानून बने रहने के बावजूद लम्बी अवधिा तक मुकदमेबाजी द्वारा आदिवासियों को तंग किये जाने से बचाने हेतु सरकार कोई प्रयास नहीं करती। सरकार द्वारा इस प्रकार की लम्बी प्रक़ि्रया का आश्रय लिये बिना इस प्रयोजनार्थ न्याय (नेचुरल जास्टिस) सिठ्ठांत के अनुरूप कोई सुसंगत प्रक्रिया के लिए भी प्रावधाान किया जा सकता था लेकिन यह नहीं किया गया।

''आदिवासी और जनजातीय लोग, जिनकी आबादी सात करोड़ से ऊपर है, क्रूर पूंजीवादी और अर्ठ्ठ-सामंती शोषण के शिकार हैं। जमीनें उनके हाथ से निकल गई हैं, जंगल के अधिाकार छिन गये हैं और वे ठेकेदारों तथा भूस्वामियों के लिए सस्ती और बंधाुआ मजदूरी के स्त्राोत बन कर रह गये हैं। 'पूंजीवादी-भूस्वामी-ठेकेदार गठजोड़', इनके नेतृत्व को कुछ रियायतें देकर उनकी परंपरागत एकजुटता को भंग करने की कोशिश करके उनके जायज अधिाकारों से नवोवल उन्हें वंचित करता है बल्कि उन्हें बर्बर ताकत के साथ कुचलता भी है।

भूमि-सुधार को लागू करने की दिशा में झारखंड, छत्ताीसगढ़ व अन्य आदिवासी बहुल क्षेत्रों में बहुत ही कम काम हुआ है 'ख़ासकर झारखंड में'। झारखंड राज्य के जिलों में सीलिगं से फाजिल कुछ जमीनों को अधिाग्रहित कर सरकार द्वारा अधिासूचना भी जारी की जा चुकी है लेकिन अभी तक इन जमीनों के वितरण का काम नहीं हुआ है। सीलिंग से फाजिल अधिासूचित जमीनों के अतिरिक्त भी बहुत-सी जमीनें हैं, जिनकी पहचान अभी तक नहीं हो हो पाई है। ऐसी जमीनों की फर्जी एवं बेनामी बंदोबस्ती की गई। जमींदारों के रिटर्न तथा जमीन पर वास्तविक स्थिति में तालमेल का भी अभाव है। इन तमाम बिन्दुओं की जांच होनी चाहिए! इसके अतिरिक्त बहुत-सी परती, 'गैर-मजरूआ खास' तथा बदले हुए चरित्रा की 'गैर-मजरूआ आम' जमीनें हैं, जिन्हें भूमिहीनों एवं गरीबों के बीच बांटा जा सकता है। भू-दान की भी हजारों एकड़ जमीन या तो वितरित नहीं हुई है या जिनके पट्टे दिए भी गये हैं उनका दखल-कब्जा लाभार्थियों को नहीं दिलाया जा सका है। मुकदमों में सीलिंग से फाजिल जमीन बड़े पैमाने पर फंसी हुई है। उपर्युक्त तमाम किस्म की जमीनों को लेकर भूमि-रिकॉर्ड को अद्यतन करना भी जरूरी है। मुकदमों से बचने के लिए सरकार 'भूमि-सुधाार अधिानियम' को 'शैडयूल' 9, में डाल दे, तो हजारों एकड़ जमीन उपलब्धा हो सकेगी।

संताल परगना के 'रेवेन्यू मौजा-प्रधाानों' की व्यवस्था जमींदारी-उन्मूलन के साथ समाप्त नहीं की गई। वास्तव में ये ऐसे बिचौलिये हैं, जो कि रैयतों को तंग करने का ही काम करते हैं। इन पदों से जुड़े लोगों के पास हजारों एकड़ जमीन आफिसियल-जोत के रूप में है। इस व्यवस्था को समाप्त किये जाने की अनुशंसा 1950 के दशक में ही की गई थी। इस पद को समाप्त कर दिये जाने से, हजारों एकड़ जमीन आदिवासियों में वितरित करने के लिए उपलब्धा हो जायेगी। सुरक्षित एवं संरक्षित वनों के सीमा विस्तार में भी बहुत से मौजाओं की जमीन एवं कई वन-गांव चले गये हैं। इसके अतिरिक्त जंगल की सीमा के अन्दर हरित चादरविहीन बड़े-बड़े भूखंड बिना उपयोग के पड़े हुए हैं।

सी.पी.आई. (एम) ने अपनी '16वीं पार्टी कांग्रेस' द्वारा स्वीकृत राजनीतिक प्रस्ताव में कहा है कि''अादिवासियों के बीच जर्बदस्त असंतोष है। उन्हें बदतरीन किस्म के शोषण का निशाना बनाया जा रहा है। उनकी जमीनें छीनी जा रही हैं, उन्हें वनों पर अपने अधिाकारों से वंचित रखा जा रहा है। परियोजनाओं के लिए विस्थापित किये जाने से उनकी जिंदगियां तहस-नहस हो रही हैं और उनका सूदखोरों-ठेकेदारों द्वारा निर्ममता से शोषण किया जा रहा है। 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, वनवासी कल्याण परिषद' नाम के अपने मोर्चा संगठन के जरिये देश के विभिन्न हिस्सों में गैर-ईसाई आदिवासियों को गोलबन्द करने में लगा हुआ है, ताकि ईसाई और गैर-ईसाई के आधाार पर आदिवासियों की एकजुटता को तोड़ा जा सके।

'आर. एस. एस.' आदिवासियों की संस्कृति व परंपरा को उखाड़कर आदिवासियों के बीच, जो अब तक हिन्दू समुदाय के दायरे के बाहर रहे हैं, हिन्दुवादी-विचारधाारा थोपना चाहती है।''

झारखंड में ''28.6'' फीसदी आबादी आदिवासियों की है। संथाल, हो, मुंडा, उंराव तथा दूसरे आदिवासी समुदाय इस इलाके के सबसे शोषित तबके हैं। पूंजीवादी विकास के साथ आदिवासियों को सबसे भयावह तथा लुटेरे किस्म के सामाजिक-आर्थिक शोषण का सामना करना पड़ रहा है और आजादी के बाद गुज़रे तमाम दशकों में यह शोषण विभत्स ही होता गया है। इस आदिवासी आबादी के लिए 'जमीन तथा जंगल ही जीवित रहने तथा पेट भरने के मुख्य साधान हैं।' इनकी जमीनें दूसरों ने हड़प ली हैं और उन्हें वनों के अधिाकार से भी वंचित किया गया है, जिसके चलते उनकी हालत और खराब हो गई है।

जमीन से जुड़ी उपर्युक्त समस्याओं के अतिरिक्त झारखंड की जमीन की उत्पादकता एवं उत्पादन कृषि को लाभकारी बनाने पर भी हमें विचार करना होगा। झारखंड की विशेष भौगोलिक परिस्थिति तथा यहां की अधिकांश पठारी जमीनों के चलते यहां की कृषि की अलग समस्याएं हैं। यहां की जमीन में नमी की कमी है एवं जमीन का मात्रा ''8 '' ही सिंचित है। इन्हीं कारणों से भाग यहां की जमीन अधिकतर 'एक-फसली' है। यहां आवश्यकता से कम खाद्यान्न का उत्पादन होता है। कुछ वर्षों में सब्जी की खेती में गुणात्मक बढ़ोतरी हुई है लेकिन समुचित बाजार-व्यवस्था एवं ऋण के अभाव में इसका भी लाभ मुख्यत: बिचौलियों को ही मिल रहा है। किसानों की स्थिति दयनीय बनी हुई है। 'नई कृषि-नीति' के अंतर्गत सब्सिडी में कटौती एवं अन्य मूलभूत सुविधाओं को मुहैया कराने के दायित्व से सरकार द्वारा हाथ खींच लिये जाने के कारण खेती का लागत मूल्य भी कई गुणा बढ़ गया है।

दरअसल झारखंड में ऋण, खाद, बीज, बाजार-व्यवस्था, भंडारण, सिंचाई, बिजली, सड़क, परिवहन आदि की व्यवस्था सरकार द्वारा किये जाने की मांग को लेकर किसानों की व्यापक गोलबंदी चाहिये। झारखंड की विशेष परिस्थिति के मद्देनजर कसी ''वर्षा जल संचय'' ;त्ंपद ँजमत भ्ंतअमेजपदहध्द एवं ''वाटरशेड'' प्रबंधन ;ँजमत ेीमक कमअमसवचमउमदज - उंदंहमउमदजध्द को गंभीरता से लागू करना भी सरकार का ही दायित्व बनता है छोटी नदियों, नालों, बांधाों, पोखरों, आहरों, पैनों, डांडों आदि का पंचायत द्वारा विकास एवं मुकम्मल रख-रखाव की व्यवस्था को सुनिश्चित करना भी सरकारी जिम्मेवारी है, जिसे जनता को विश्वास में ले कर उनके सहयोग से पूरा किया जा सकता है। दरअसल किसानों एवं सरकार को यह समझने की आवश्यकता है कि झारखंड में कृषि विकास छोटी जोतों में ही, उन्नत-कृषि तकनीक के आधार पर संभव है, न कि कॉरपोरेट कृषि-उत्पादन पर, जो छोटे एवं मंझोले किसानों की जमीन ही निगल जायेगा। झारखंड में कृषि के लिए मूलभूत संरचनात्मक सुविधाओं को उपलब्ध कराने में बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश की दरकार है।

झारखंड के ग्रामीण गरीब, जिनमें अधिकतर आदिवासी एवं दलित हैं, बड़े पैमाने पर अपनी जीविका मजदूरी से अर्जित करते हैं। वे बंधुआ मजदूरी करते हैं। उन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती। छोटे किसान भी मजदूरी करते हैं। यहां पर कृषि के पास रोजगार प्रदान करने की क्षमता बहुत कम है। सरकारी योजनाओं में कुछ काम इन्हें मिल जाता है लेकिन भ्रष्टाचार की वजह से वास्तव में, योजना में 'आकलित श्रम-दिवस' से बहुत कम रोजगार गरीबों को मिलता है। ऐसे लोगों को रोजी की तलाश में बड़े पैमाने पर 'पलायन' करना पड़ता है और सुदूर स्थानों पर उनका अमानवीय शोषण होता है। इनके लिये न्यूनतम मजदूरी, वासगीत और सामाजिक-सुरक्षा की गांरटी तथा सरकार द्वारा पर्याप्त रोजगार के अवसर प्रदान कराने की योजनाएं बनानी होंगी।

आदिवासियों के शोषण से मुक्ति के संघर्ष को वर्ग-संघर्ष एवं व्यापक जनवादी आंदोलन के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए। इसलिए संवैधाानिक-सुरक्षा उपायों, प्रशासनिक ढांचों की सीमाओं के सवाल को इस बुनियादी समस्या के दायरे में रखकर ही देखना चाहिए कि आदिवासी जनगण की पहचान की रक्षा कैसे की जाए। ये भी सोचने की जरूरत है कि कैसे उन्हें अपनी भाषा तथा संस्कृति के विकास का भरोसा दिलाया जाय और कैसे ऐसी जनतांत्रिाकसंस्थाओं का निर्माण किया जाय, जिनका इस्तेमाल इन कमजोर तबकों के वर्गीय-शोषण के खिलाफ लड़ने के लिये किया जा सके।

अपनी पहचान की हिफाज़त करने तथा 'पूंजीपति-जमींदार-ठेकेदार-महाजन' के भयावह-शोषण का मुकाबला करने के लिए आदिवासी जनता के संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है। इसी संघर्ष को व्यापक बनाकर आगे बढ़ाने की जरूरत है।

इस सच्चाई को ध्यान में रखते हुए, आदिवासी जनता के हितों की हिफाज़त करना सर्वोच्च प्राथमिकता है ऐसा ढांचा विकसित किया जाना चाहिए, जो आदिवासी और गैर-आदिवासी मेहतनकश जनता के सभी हिस्सों की एकता बरकरार रखते हुए आदिवासियों के हितों को आगे बढ़ा सके।....

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