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एकता परिषद भू अधिकार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अहिंसात्मक जन आंदोलन है. लोगों की आवाज सुनी जाए इसके लिए एक बड़े पैमाने की राष्ट्री अभियान की नींव रखी गयी थी, जिसे जनादेश 2007 कहा गया, जिसके माध्यम से 25 हजार लोगों ने राष्ट्रीय राजधानी तक पहुंच कर अपनी आवाज बुलंद की.

Tuesday 30 August 2011

पूर्वोत्तर की त्रासदी: समाधान की संभावनाएं

पी. व्ही. राजगोपाल | नई दिल्‍ली, अगस्त 18, 2011 17:16

असम और अरुणांचल प्रदेश की लम्बी यात्रा पूरा करके अभी-अभी उत्तर प्रदेश से वापस आया हूँ. पूर्वोत्तर के बारे में कहना हो तो, बहुत कुछ है मैं कोशिश कर रहा हूँ, कि कुछ बातें संक्षिप्त में कहूँ.

इस बार की यात्रा एक शांति-सम्मेलन के साथ प्रारम्भ हुई. हम 25-30 लोग निरन्तर इस विषय पर विचार करते रहे कि पूर्वोत्तर में शांति कायम करने के लिए क्या-क्या किया जाए. इस बात पर हमें खुशी हुई, कि जन संगठनों के साथ सरकार की वार्ता चल रही है. बोडो आन्दोलन करीब-करीब शांत हो चुका है,

उल्फा के साथ बातचीत आरम्भ हो चुकी है. भले ही ये प्रयास बहुत लोगों की जान जाने के बाद हो रहा है, तब भी इस प्रयास के लिए सरकार बधाई की पात्र हैं. आगे से इस बात का ध्यान रखा जाए, कि शांतिमय ढंग से प्रारम्भ होने वाले आन्दोलनों को हिंसक नहीं होने दिया जाए. और कहीं हिंसक हुआ तो भी जल्द ही बातचीत के दौरान समस्या का हल खोजा जाए. यह तभी सम्भव होगा जब सरकार में बैठे लोग अहिंसात्मक आन्दोलनों से बात करना सीखें.

सरकारें अपने तौर तरीकों से निरन्तर यह प्रदर्शित करते आ रहे हैं कि वे अहिंसक आन्दोलन से बात करने के लिए तैयार नहीं है. बल्कि हिंसा वालों से बात करने को तैयार हैं ये संदेश अपने आप में दुर्भाग्यपूर्ण है, इसलिए सरकार को एक ऐसा विभाग प्रारंभ करना होगा, जो आंदोलनों से संवाद करने की कला जानता हो. उन्हें इस कार्य के लिए प्रशिक्षण और संसाधन उपलब्ध कराना भी सरकार की जिम्मेदारी होगी, अन्यथा इस काम में क्षमता रखने वाले कुछ संगठनों को जिम्मेदारी व संसाधन दिया जाए जिससे वे निरन्तर इस प्रयास में लगे रहें और आन्दोलनों को हिंसक होने से रोकें. नक्सली समस्या से पीडि़त प्रांतों को लेकर मैंने कई बार राष्ट्रपति से लेकर मुख्यमंत्रियों तक यह निवेदन करता रहा कि बातचीत के माध्यम से समस्या हल करने के लिए कुछ सामाजिक संगठनों को आगे लायें. यह तो दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि भारत में सरकारें आज भी बंदूक के शक्ति पर ही विश्वास रखते हैं, न कि बातचीत के शक्ति पर.

देश के कई गणमान्य व्यक्तियों ने मणिपुर में दस साल से अहिंसक आन्दोलन में लगे एरोम शर्मिला से बात करने के लिए सरकार से आग्रह किया लेकिन आज तक सरकार की ओर से इस दिशा में कोई पहल नहीं किया गया. कम से कम अब सरकार इस बात के लिए तैयार हो कि वे जल्दी से जल्दी बातचीत के माध्यम से मणिपुर की समस्या को हल करें ताकि सम्पूर्ण पूर्वोत्तर में शान्त का माहौल बन सके.

शांति-सम्मेलन के दौरान हम इस बात को समझ रहे थे कि पूर्वोत्तर के कई प्रान्तों के बीच में तनाव हैं, कहीं कहीं आदिवासी समूह के बीच में तनाव है कहीं-कहीं अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं बीच में तनाव है, जैसे अरुणांचल प्रदेश में चीन के दबाव के कारण, म्यानमार में हिंसक संगठनों के प्रशिक्षण के कारण और बंग्लादेश से भूमिहीनों के आगमन के कारण तथा अनेक कारणों से पूर्वोत्तर को लेकर निरंतर सोचने के लिए शांति-प्रयास में तीव्रता लाने की दृष्टि से कुछ सामाजिक संगठनों की जिम्मेदारी और संसाधन देना आवश्यक होगा. शांति साधना आश्रम गुवाहाटी जैसे कोई एक संगठन इसमें समन्वयन की भूमिका निभा सकते हैं.

विकास के नये सन्दर्भ को लेकर पूर्वोत्तर में काफी तनाव है. कहा जा रहा है कि ऊर्जा समस्या को हल करने के लिए बह्मपुत्र नदी में कई बांध बनाने की तैयारी के बात चल रही है. इससे विकास तो बहुत दूर लेकिन बाढ़ और अन्य विषमताओं से परेशानी में इजाफा होगा. बह्मपुत्र के साथ इतनी बड़ी छेड़छाड़ भारत के भौगोलिक परिवेश को तो नुकसान पहुंचाएगी ही साथ ही निचले क्षेत्र में स्थित बंग्लादेश को भी भारी क्षति पहुंचेगी. इस बात को लेकर बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरु हो गया है. सरकार अभी से आंदोलनलनकारियों की बात सुने और समाधान की ओर बढ़े.

चाय असम की पहचान है, लेकिन साथ ही यह एक समस्‍या भी बनकर सामने आ रही है. लाखों एकड़ जमीन कई वर्षों के लीज पर कई बड़ी कंपनियों को दे रखी है. आम भूमिहीन लोगों के पास भोजन का अभाव है तो दूसरी तरफ चाय के नाम पर लाखों एकड़ जमीन पर कब्‍जा किया जा चुका है. जब आदिवासी एक पेड़ काटते हैं तो उन्हें अनेक प्रकार की सजा सुनायी जाती है, जबकि लाखों एकड़ जंगल साफ करके चाय बागानों को बढ़ावा दिया गया है.

मैं जहां चाय बागान के मजदूरों से मिला वहां उन के हालत बंधुआ मजदूरों से भी बदतर दिखायी पड़ रहा था. तीन पीढ़ी पहले उड़ीसा से झारखण्ड से और बिहार से आये हुए ये मजदूर लोग आज भी अत्यधिक गरीबी में भविष्य के प्रति बिना किसी उम्मीद के जी रहे हैं. अब वक्‍त आ गया है कि इन मजदूरों के हालात सुधारने के लिए चाय बागानों में इन्हें सिर्फ चाय का ही नहीं, लाभ का भी भागीदार बनाने का दबाव बागान मालिकों पर बनें. पीढ़ी दर पीढ़ी गुलाम बनकर चाय बागान के मालिकों को धनी बनाने का बोझ इन मजदूरों के सिर से हटा देना चाहिए. चूंकि अनाज की तुलना में चाय कोई आवश्यक चीज नहीं है, इसलिए अब चाय बागानों के बन्द करके इन मजदूरों को खेती के लिए जमीन दिया जाना चाहिए ताकि ये लोग भी इंसान जैसा जीवन जी सके.

बह्मपुत्र नदी में दुनिया का सबसे बड़ा टापू मौजूद है, इस टापू का आधा-हिस्सा बाढ़ के कारण गायब हो चुका है, रेत से बना हुआ ये टापू कब तक टिकेगा ये कहना कठिन है. पिछले वर्षों में करीब दो लाख लोग विस्थापित होकर अन्य जगहों पर जाकर बसे हुए है हर वर्ष हजारों लोग विस्थापित हो रहे हैं. ऐसा लगा नहीं कि कहीं इस बात को लेकर कहीं गंभीर चिंतन हो रहा है या माजुली को बचाने का कोई युद्धस्तर पर योजना बन रही हो. असमिया भाषा में कहें तो लाहि-लाहि ढंग से कुछ तो हो रहा है, लेकिन जिस तेजी से होना चाहिए वो नहीं हो रहा है. माजुली कृष्ण भक्तों का तीर्थ स्थल है, सौ के करीब सत्रों में हजारों बच्चे कला और अध्ययन में लगे हुए हैं सभी धमाचार्य अपनी ओर से मुख्यमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक निवेदन किये हैं पता नहीं कब सरकार जागेगी.

वन अधिकार अधिनियम के तहत वोडो आदिवासियों को जमीन देने का काम अभी भी बाकी है. 1975 से जो लोग वन भूमि पर बैठे हुए हैं उन्हें तक जमीन नहीं दिया गया हैं इतना अच्छा कानून बनने के बावजूद भी जिसे न्याय मिलना चाहिए नहीं मिल रहा है इससे ज्यादा हास्यापद क्या हो सकता है. पूरे देश में आदिवासियों को दुश्मन समझने की वन विभाग की जो वृत्ति है या हर आदिवासी को नक्सली समझने का उतावला पन है, उससे वनविभाग को मुक्ति दिलाना आज की आवश्यकता है.

इस पूरी यात्रा में शांति साधना आश्रम जैसे कई समाजसेवी संगठनों का काम नजदीक से देखने को मिला इन्हीं लोगों कि निष्ठा और कार्यशैली ने पूर्वोत्तर और भारत के अन्य इलाकों को अभी भी जोड़ रखा है. इनके अनुभव और निष्ठा पूर्वोत्तर के शांति और सही विकास प्रक्रिया में काम आ सकता है. और उन्हीं के माध्यम से पूर्वोत्तर क्षेत्र को भारत के अन्य भागों से जोड़ने में सफलता मिल सकती है.

(लेखक गांधीवादी जन संगठन एकता परिषद के अध्यक्ष और राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद के सदस्य हैं)

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