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एकता परिषद भू अधिकार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अहिंसात्मक जन आंदोलन है. लोगों की आवाज सुनी जाए इसके लिए एक बड़े पैमाने की राष्ट्री अभियान की नींव रखी गयी थी, जिसे जनादेश 2007 कहा गया, जिसके माध्यम से 25 हजार लोगों ने राष्ट्रीय राजधानी तक पहुंच कर अपनी आवाज बुलंद की.

Tuesday 30 August 2011

अभी भी है मौका सुधरने का

पी. व्ही. राजगोपाल | अगस्त 22, 2011 11:08
वर्ष 2007 में 25 हजार आदिवासियों, दलित एवं भूमिहीन लोग लम्बी पदयात्रा करके भारत सरकार को चुनौती देने के लिए दिल्ली पहुंचे. आजादी के 60 साल बाद भी जीवन जीने के संसाधनो से वंचित इन आंदोलनकारियों के सामने सरकार को झुकना पड़ा. भूमिहीनता मिटाने की दृष्टि से और भूमि सुधार की अधूरे कार्यक्रम पूरा करने की उद्देश्य से भूमि सुधार परिषद का गठन किया गया.

इससे पूर्व वर्ष 2003 से ही भूमि सुधार के एजेण्डे को लेकर केन्द्रीय सरकार के साथ वार्ता आंरभ हो चुका था. एकता परिषद जैसे जन संगठन पदयात्राओं के माध्यम से अलग-अलग प्रांतीय सरकारों को भी भूमि सुधार के विषय में काम करने के लिए निरंतर बाध्य करते रहे हैं. लेकिन इतना सब होने के बावजूद भी भूमि एवं जीवन जीने के अन्य संसाधनों के बारे में सरकार का रवैया वही बना रहा जो पहले था. उनकी मान्यता है कि जल, जंगल, जमीन का दोहन कंपनियों के मार्फत होनी चाहिए. यह भी मान्यता है कि देश के हित में ओद्यौगिकरण जरूरी है और ओद्यौगिकरण के लिए संसाधनो के दोहन भी जरूरी है. इसलिए आदिवासी, दलित एवं गरीबो को जमीन देने के विषय में सरकार की कभी रुचि रही नहीं.

आज देश के अलग-अलग हिस्से में चाहे सिंगूर में हो, पलाचीमाड़ा में हो, जैतापुर मे हो या भट्टा-परसौल हो हर जगह भूमि बचाने के लिए किसान आंदोलित है. दुसरी तरफ आदिवासी एवं दलित एक-एक इंच भूमि के लिए संघर्षरत है. केंद्रीय एवं प्रांतीय सरकारों के व्यवहार से यह साफ है कि वह गरीबों, भूमिहीनों को जमीन देना तो दूर भू-स्वमियो को भी अब किसान नहीं रहने देगी. तमाम जमीन किसानों से लेकर बडी़-बड़ी कम्पनियो को देने की दिशा में पूरी व्‍यवस्था एकजुट होकर लगी हुई है. इस प्रक्रिया में किसानों को झूठे मुकदमों में फंसाना, कम्पनियों के गुडों से किसानो को पिटवाना, जबरन भूमि हथियाना ऐसी कई प्रक्रियाएं चल रही हैं. चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ है. ऐसे मौके पर सवाल उठता है कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद की बैठक क्यों नहीं बुलाई जा रही?

देश भर के कई विद्वानों ने पूरा एक साल अध्ययन करने के बाद करीब 300 सुझाव सरकार के सामने रखे हैं जिस पर अगर ईमानदारी से काम किया जाए तो भूमि से जुड़े कई सवालों को हल किया जा सकता है. आज जब किसानो का आंदोलन हिंसक होने लगा तब सरकार भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर पुर्नःविचार करने को तैयार हो गई है. जब नक्‍सलवाद सिर चढ़कर बोलने लगा तब आदिवासियों के हित में वन-अधिकार कानून बनाने के लिए तैयार हो गए. किसी भी देश के सरकार के लिए यह हास्यास्पद बात है कि वह तभी काम करेगी जब उन पर दबाव पड़ेगा. स्वाभाविक रूप से गांव के हित में, किसानो के हित में और गरीबों के हित में काम करने का संस्कार जिन लोगो में नहीं है उन्हे न सरकार बनानी चाहिए और न ही सरकार में रहना चाहिए. सामंती व्‍यवस्था से पीडि़त इस देश की मानसिकता इतनी खराब हो गई है कि जब तक कहीं से दबाव न पड़े तब तक आम जनता के हित में कुछ भी काम करने को तैयार नहीं है. जब अन्ना हजारे एवं रामदेव का दबाव बढ़ा तो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर पर काम करने के लिए तैयार हो गये. बिना दबाव के या बिना डंडे के काम नहीं करना है, ऐसा सोचने वाले राजनेता एवं सरकारी कर्मचारियों से यह देश पीडि़त है और इस पीड़ा को लेकर जनता चारों ओर आक्रोशित है.

सही सोच रखने वाले देश के प्रधानमंत्री होते तो इस समय भूमि सुधार परिषद के माध्यम से भूमि से जुड़े तमाम मुद्दों को समझने एवं हल करने की कोशिश करते. सत्ता मे बैठे हुए दलों के पास आप जनता के पक्ष में काम करने की रुचि होती तो इस समय किसानों की आत्म-हत्या, किसानों का आंदोलन एवं आदिवासी क्षेत्रों के हिंसा आदि मुद्दों को लेकर एक व्यापक बहस चलाकर उन समस्याओं के निराकरण को लेकर सरकार एवं सामाजिक संगठनो का संयुक्त अभियान चला दिया होता.

मैने कई बार सरकार से निवेदन किया कि वो भूमि सुधार के संबंध मे क्रांतिकारी कदम न उठाना चाहे, तो भी छोटे-छोटे कदम तो उठाये. पहला कदम है भूमि अधिग्रहण को बंद करना और सार्वजनिक हित मेंयदि भूमि की जरूरत हो तो उसे जन भागीदारी के माध्यम से प्राप्त करना, दूसरा कदम है भूमि और कृषि पर बाजारीकरण को रोकना और खाद्य सुरक्षा को प्राथमिकता देना, तीसरा कदम है कि जिन गरीब लोगों के जमीन पर दबंग लोगों ने कब्जा किया है या कंपनियों ने मलबा डाला है या वन विभाग ने पेड़ लगाया है उसे इमानदारी से उन किसानों को वापस दिलाना और आक्रमणकारियों को सजा देना. अगला कदम है कि नाले एवं कूड़े के किनारे बसे शहर के झुग्गी झोपडि़यों में पशुवत जिदंगी जीने वाले को अपनी झोपड़ी तैयार करने के लिए पर्याप्त जमीन देना. ऐसा कोई न रहे जिनके पास आवासीय जमीन न हो. यह एक लम्बी सूची है लेकिन यह सूची उनके लिए काम आएगी जिनके अंदर कुछ करने की तमन्ना हो. राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद के अध्यक्ष से यह हो पायेगा ऐसा लगता नहीं है. वे सिर्फ आम आदमी के हित में भाषण दे सकते हैं, लेकिन आम आदमी के हित में काम नहीं कर सकते.

इसी प्रकार किसानों की समस्या हल करने के लिए एकल खिड़की एवं त्वरित गति से काम करने वाले न्यायालय की बात हुई थी. पिछले कई वर्षों से इन सभी सुझावों को आम लोगों से दूर नौकरी करने वोले कुछ सरकारी कर्मचारियों से हाथ का खेल बन कर रह गया है. काम न करने के लिए सौ बहाने हैं. सरकारी अफसरो के चक्कर में न फंसकर आम जनता के हित में काम करना चाहे तो उनके पास अब भी मौका है अगर किसी सरकार ने ठान लिया हो कि हमें देश को बर्बाद कर ही छोड़ना है, चंद पूंजीपतियों के हित में आम जनता को बेकार एवं बेरोजगार रखना ही है तब ऐसे सरकार को समझाना कठिन है. धीरे-धीरे सभी लोग ऐसा महसूस करने लगे हैं कि व्यापक जन संगठन एवं जन आंदोलन के बिना इस देश के सरकार से कुछ भी उम्मीद करना बेमानी है.

इस धारणा को अगर बदलने की दिशा में ईमानदारी से कुछ करना चाहे तो केंद्रीय एवं प्रांतीय सरकारों के सामने अभी भी वक्त है. समय की पुकार सुनना ही सही समझदारी मानी जायेगी.

(लेखक गांधीवादी जन संगठन एकता परिषद के अध्यक्ष और राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद के सदस्य हैं.)

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