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एकता परिषद भू अधिकार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अहिंसात्मक जन आंदोलन है. लोगों की आवाज सुनी जाए इसके लिए एक बड़े पैमाने की राष्ट्री अभियान की नींव रखी गयी थी, जिसे जनादेश 2007 कहा गया, जिसके माध्यम से 25 हजार लोगों ने राष्ट्रीय राजधानी तक पहुंच कर अपनी आवाज बुलंद की.

Saturday 16 April 2011

वनाधिकार कानून को लेकर विधायक गंभीर

Sikandra Block, Jamui
वन अधिकार कानून 2006 के तहत एकधुर जमीन मात्र का वितरण नहीं बल्कि अपने नागरिकों को वेलफेयर स्टेट के द्वारा कई तरह के मौलिक अधिकार प्रदान किया  गया है. विभिन्न तरह के अधिकार आजादी के 63 साल के दरम्यान हासिल हुआ. वनभूमि पर रहने वालों को वन अधिकार दिया गया है. इसे वन अधिकार मान्यता कानून 2006 कहा जाता है. वन अधिकार मान्यता कानून 2006 को कानून का रूप देने हेतु विभिन्न जन संगठनों ने मिलकर कदमताल किया है. इस क्रम में सरकार से संवाद स्थापित करने के अलावा संघर्ष किया गया, लंबी लड़ाई लड़ी गयी. इतना करने के बाद भी इस कानून को जमीनी स्तर पर बेहतर ढंग से क्रियान्वयन करने के लिए बहुत सारे प्रयास करने की जरूरत है.
नवीनतम जानकारी के अनुसार अभी तक पूरे देश में वन अधिकार कानून के तहत 27.16 लाख दावे दाखिल किये गये, जिनमें से 7.95 लाख अधिकार पत्र वितरित किये गये और शेष 19.21 लाख दावे निरस्त कर दिये गयें. बहुत सारे क्षेत्र में सही दावों को भी खारिज कर दिया गया है. यह आदिवासी समुदाय के साथ बहुत बड़ा अन्याय और धोखा है.
इस संदर्भ में बांका विधान सभा के विधायक सोने लाल हेम्ब्रम ने कहा कि केन्द्र सरकार के द्वारा वनभूमि पर रहने वाले अनुसूचित जनजाति तथा अन्य परपरागत वन निवासी को फायदा दिलवाने के लिए वन अधिकार कानून 2006 कानून बनाया गया है. इस अधिनियम के अन्तर्गत वन निवासी अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पंरपरागत वन निवासियों को वन अधिकारों की मान्यता और अधिकारों का प्रदान किया जाना है. जो अनुसूचित जनजाति के लोग 13 दिसंबर, 2005 से पूर्व वनभूमि को कब्जा कर चुके हैं तथां अन्य पंरपरागत वन निवासी के सदस्य या समुदाय 13 दिसंबर, 2005 के पूर्व कम से कम तीन पीढ़ियों तक वन अथवा वनभूमि पर निवास कर रहे हैं और जीवन व्यापन के लिए प्राथमिक तौर पर आश्रित रहा है.
इसके तहत दोनों समुदाय के लोगों को वनभूमि पर अधिकार दिया गया है, मगर बिहार राज्य में कानून को बेहतर ढंग से लागू नहीं किया जा रहा है. बिहार सरकार ने अपने 38 जिलों में से सिर्फ 13 जिलों को ही वनवासी जिला घोषित किया है. इसमें अव्व्ल जमुई ,बांका, कटिहार, पूर्णिया, मुंगेर, किशनगंज, अररिया, पश्चिम चम्पारण, कैमूर, रोहतास, भागलपुर, मधेपुरा और सहरसा को शामिल किया गया है.
वन अधिकार कानून 2006 में निहित है कि अनुमंडल स्तरीय समिति, जिला स्तरीय समिति और राज्य स्तरीय समिति गठन करके वनभूमि के भूमि का स्वामित्व प्रदान किया जाए. इसको लेकर सूबे में अभी तक केवल 8 जिलों में ही वन समिति गठित की गयी है. वह जमुई, बांका, पूर्णिया, मुंगेर, किशनगंज, पश्चिम चम्पारण, कैमूर और भागलपुर है. इनमें से केवल जमुई और बांका जिले से 17 सौ से ऊपर आवेदन पत्र जमा करने के बाद वन समिति ने आगे कार्रवाई के लिए अग्रसारित किया है. दुर्भाग्य से अभी तक किसी वनभूमि पर रहने वाले लोगों को एक धूर भी जमीन नहीं दी गयी है. इससे साफ जाहिर होता है कि सरकार उदासीन और अफसर लापरवाह हैं.
उन्होंने कहा कि इस अधिनियम के अन्तर्गत ग्राम सभा प्राधिकार होगी, जो वन निवासी अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पंरपरागत वन निवासियों को व्यक्तिगत अथवा सामुदायिक अथवा दोनों वन अधिकार प्रदान करने के बारे में प्रक्रिया प्रारंभ करेगी कि किस प्रकृति का और किस हद तक अपनी सीमाओं के अंतर्गत अधिकार देगी, इस कार्य के संपादन हेतु ग्रामसभा दावे प्राप्त करेगी और प्रत्येक अनुशंसित दावे को मानचित्र में चिन्हित तैयार करेगी और उन दावों को मानचित्र में चिन्हित करते हुए अपनी बैठक में एक प्रस्ताव पारित करेगी और तदुपरांत उसकी एक प्रतिलिपि अनुमंडल स्तरीय समिति को अग्रसारित करेगी.
राज्य सरकार एक राज्यस्तरीय अनुश्रवण (मॉनिटरिंग) समिति गठित करेगा जो मान्यता प्रदान और वन अधिकार प्रदान की प्रक्रिया की मॉनिटरिंग करेगी और नोडल एजेंसी को उसके द्वारा वाछित प्रतिवेदन एवं विवरण उपस्थित करेगी.
अनुमंडल स्तरीय समिति, जिला स्तरीय समिति और राज्य स्तरीय समिति में प्रत्येक स्तर पर राज्य सरकार के राजस्व विभाग, वन विभाग तथा जनजातीय मामलों के विभाग के पदाधिकारी और पंचायती और पंचायती राज संस्थाओं द्वारा नियुक्त तीन सदस्य रहेंगे, जिनमें कम से कम तीन अनुसूचित जनजाति के और एक महिला सदस्य होंगे जैसा विहित हो. अनुमंडल स्तरीय समिति, जिला स्तरीय समिति और राज्यस्तरीय समिति की रचना, कृत्य एवं कर्तव्य और कृत्यों एवं कर्तव्यों के निर्वाह के लिए अपनायी जानेवाली विधि वही होगी जो विहित की जायेगी.
बिहार से झारखण्ड अलग होने के बाद बिहार में अनुसूचित जनजाति की आबादी 7 लाख 58 हजार 351 रह गई है. जिसमें पुरुष 3 लाख 93 हजार 114 और महिला 3 लाख 65 हजार 237 हैं. इस प्रकार बिहार में अनुसूचित जनजाति की आबादी का 1 प्रतिशत है. अभी भी बिहार में अनुसूचित जनजाति की 37 जातियां एवं उपजातियां हैं. बिहार में अनुसूचित जनजाति की आबादी कटिहार (140418) और पूर्णियाँ (111947) जिला में सबसे अधिक है.
बिहार में आदिवासी समुदाय आज भी समाज के मुख्यघारा से वंचित है. अनुसूचित जनजाति की जातियां एवं उपजातियाँ धीरे धीरे बिहार से विलुप्त होती जा रही है. आज भी आदिवासी क्षेत्र के पिछड़ेपन का मुख्य कारण सत्ता (सरकार) की उपेक्षा रही है. इन आदिवासी इलाको को आज भी वन भूमि के अधिकार से दूर रखा गया है. इनके पास जमींदारी के समय का (हुकूमनामा) एकरनामा है फिर भी उस भूमि पर सामान्य वर्ग के लोग तथा वन विभाग के द्वारा कब्जा किया जा रहा है. वन विभाग ने वनोपज वस्तुओ को भी आदिवासियो को जंगल से ले जाने पर पाबंदी लगा दिया है.
एकता परिषद, बिहार के द्वारा 20 जून 2009 को जमुई जिले मे ‘आदिवासी वन अधिकार सम्मेलन’ किया था. इसके बाद पटना में 23 जुलाई 2009 को ‘वन अधिकार कानून 2006’ के ऊपर कार्यशाला किया गया. दोनों आयोजनो के बाद जमुई जिले के खैरा प्रखंड के हड़खार पंचायत के आठ गाव यथा दीपाकरहर, सिरसिया, महेंग्रो, बरदौन, रजला, प्रतापपुर, भलुआही और झिलार से 740 आदिवासी परिवारों के द्वारा 916.11 एकड़ भूमि कब्जा का दावा पत्र 14 जून 2009 को हड़खार ग्राम पंचायत के मुखिया दीपक हेम्ब्रम ने बाजाप्ता ग्राम सभा से पारित करा कर 27 अग्रस्त 2009 को अनुमण्डलाधिकारी, जमुई को दिया।  इस पर युद्धस्तर कार्रवाई नहीं की जा रही है.
वन अधिकार कानून लागू होने के बाद भी आदिवासियों एवं गैर दलितों पर वन विभाग के अधिकारियों के द्वारा लगातार प्रताड़ित किया जा रहा है. जमुई जिले के खैरा प्रखंड के दो पंचायत हडखार और गरही के भोले वाले 113 घर के आदिवासियों पर 284 मुकदमा वन विभाग ने ठोक दिया है. अकेले गड़ही पंचायत के 58 परिवारों पर कुल 229 केस ठोका गया है. हड़कार पंचायत के 55 घर के आदिवासियों पर 55 केस ठोंका गया है. वन विभाग के अधिकारी इतने तानाशाह बन गये कि मासूम बच्चों को भी नहीं बक्षा उन पर भी मुकदमा ठोक दिया है.
उक्त समस्या को लेकर एकता परिषद जमुई के समन्वयक प्रदीप यादव के हस्ताक्षर से ग्रामीणों का आवेदन पत्रांक 06/05  दिनांक 22.07.05 को जिलाधिकारी और वन प्रमण्डल पदाधिकारी को दिया गया. इसके बाद दिनांक 12 नवम्वर 09 को खैरा प्रखंड के प्रखंड विकास पदाधिकारी को वन विभाग के द्वारा आदिवासियों पर अंधाधुध ठोके गये मुकदमा को वापस लेने के लिए आवेदन दिया गया है. अवैध ढंग से जंगल की कटाई को छोड़कर आदिवासियों ने कृषि योग्य जमीन पर भी फसल लगाने के कार्यों में ध्यान केन्द्रित किया है. वन अधिकार कानून के 13 दिसंबर, 2005 तक जिसके कब्जा में जमीन है उक्त जमीन का मालिकाना हक वन विभाग के द्वारा दिया जाएगा. ऐसा न करके वन विभाग के द्वारा आदिवासियों पर मुकदमा ठोंका गया है.

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