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एकता परिषद भू अधिकार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अहिंसात्मक जन आंदोलन है. लोगों की आवाज सुनी जाए इसके लिए एक बड़े पैमाने की राष्ट्री अभियान की नींव रखी गयी थी, जिसे जनादेश 2007 कहा गया, जिसके माध्यम से 25 हजार लोगों ने राष्ट्रीय राजधानी तक पहुंच कर अपनी आवाज बुलंद की.

Sunday 17 April 2011

श्रमदान से बंजर भूमि में आई बहार


मगध प्रमंडल के गया ज़िले के अतरी प्रखंड में नरावट पंचायत के साठ दलित परिवारों ने दृढ़ इच्छाशक्ति, सामूहिकता एवं एकता की जो मिसाल क़ायम की है, वह समाज के सभी वर्गों के लिए प्रेरणाप्रद है. मुरली पहाड़ी की तलहटी में बसा है नरावट पंचायत का टोला वनवासी नगर.
इसके चारों ओर नक्सलियों का वर्चस्व और बसेरा है, लेकिन साठ घरों और एक सौ बीस दलित परिवारों का यह गांव नक्सलियों की सोच के ठीक विपरीत अहिंसा में विश्वास करके विकास के रास्ते पर चल रहा है. इस छोटे से टोले में कोई भी अंजान व्यक्ति पहुंचता है तो महिला हो या पुरुष,  बच्चा हो या सत्तर-अस्सी वर्ष का बुजुर्ग, हर कोई उसका स्वागत और अभिवादन जय जगत कहकर करता है. स़िर्फ कहने से ही नहीं, टोले के लोग कर्म से भी सारे जगत का भला करना चाहते हैं. अपने परिवारों के बीच शराब बंदी कराने के अलावा सौ एकड़ बंजर भूमि को उपजाऊ बनाकर टोले के लोग सामूहिक खेती कर रहे हैं. उन्होंने श्रमदान के ज़रिए तीन किलोमीटर सड़क, चार तालाबों-आहर और सामुदायिक भवन का निर्माण किया है. इन दलित परिवारों का एकमात्र दर्द यह है कि जिस भूमि पर वे क़रीब दो दशक से रह रहे हैं, खेती कर रहे हैं, उसका पर्चा पट्टा उनके नाम नहीं हुआ है. इसके लिए वे गांधीवादी जन संगठन एकता परिषद के माध्यम से संघर्षरत हैं.
इस छोटे से टोले में कोई भी अंजान व्यक्ति पहुंचता है तो महिला हो या पुरुष,  बच्चा हो या सत्तर-अस्सी वर्ष का बुजुर्ग, हर कोई उसका स्वागत और अभिवादन जय जगत कहकर करता है.
गांव के मुखिया पैंतालिस वर्षीय रामदहीन मांझी बताते हैं कि 1990 के पहले नरावट में हमारी बहुत खराब स्थिति थी. यहां स़िर्फ समस्याएं ही समस्याएं थीं, लेकिन लोक जागरण नामक संस्था ने हम लोगों को जगाया. गांधीवादी जन संगठन एकता परिषद के मार्गदर्शन और प्रयासों से हम लोग शांतिपूर्वक बेहतर जीवन जी रहे हैं. 1990 में हम सभी साठ परिवारों ने नरावट डीह गांव छोड़ दिया. एक ही दिन में अपनी झोपड़ी, कबाड़ और सामान लेकर गांव से कुछ दूर ख़ाली पड़ी बंजर भूमि पर आ बसे. यहां आकर हम लोगों ने बंजर पड़ी क़रीब सौ एकड़ भूमि को सामूहिक रूप से आबाद करने का निर्णय लिया. एकता परिषद ने इसके लिए पांच जोड़े बैल और दो हज़ार पेड़ दिए.
समय-समय पर अन्य सहयोग दिया और अधिकार के लिए अहिंसापूर्वक संघर्ष करने की प्रेरणा दी. आज वनवासी नगर के आसपास लहलहाती खेती और हरियाली नज़र आती है, जो दलित परिवारों की देन है. हालांकि इन दलितों को कई बार समाज और पुलिस का कोपभाजन भी बनना पड़ा, लेकिन अपने सही क़दम से यहां के दलित नहीं डिगे. नरावट गांव के किसानों ने इनके द्वारा उपजाऊ बनाई गई ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने का प्रयास किया, लेकिन वनवासी नगर की महिलाओं ने आगे आकर उन सभी को भागने पर मजबूर कर दिया. 2005 में नालंदा ज़िले के छबिलापुर एवं बैजनाथपुर गुमटी में नक्सलियों ने पुलिस पिकेट पर लूटपाट की. घटना से गुस्साई पुलिस ने दलितों के साथ मारपीट की और उनके प्रमुख रामदहीन को पकड़ कर अतरी थाने में बंद कर दिया. इस पर गांव के सभी लोगों ने अतरी थाने का घेराव कर पुलिस को बताया कि वे जल, जंगल और ज़मीन पर अपने अधिकार के लिए  संघर्षरत हैं, लेकिन नक्सली नहीं हैं. एकता परिषद ने भी पुलिस कार्रवाई का विरोध किया. सच्चाई जानने पर अतरी के थानेदार ने सभी से सामूहिक रूप से माफी मांगी.
आज इस गांव के दलित परिवार एक से लेकर डेढ़ एकड़ भूमि प्रति परिवार बांटकर सामूहिक खेती करते हैं. सामूहिक रूप से पत्थर तोड़ कर कुछ राशि जमा करते हैं. इससे रोजी-रोटी की व्यवस्था होती है. वे मज़दूरी भी करते हैं. गांव में शराब पीना बंद है. कभी कोई व्यक्ति शराब पीकर आ गया तो उससे जुर्माना वसूला जाता है. वनवासी नगर में स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र और मतदान केंद्र न होने के कारण दलितों को का़फी परेशानी होती है. मतदाता पहचान पत्र बने हुए हैं. वनवासी नगर में स्कूल बनाने के लिए राशि का आवंटन हो चुका है, लेकिन वन भूमि होने के कारण स्कूल भवन का निर्माण नहीं किया जा रहा है.
कहीं भी कोई समस्या हो, यहां के दलित परिवार श्रमदान के लिए हमेशा तैयार रहते हैं. 2006 में गर्मी के मौसम में जब गया शहर में भीषण पेयजल संकट उत्पन्न हुआ और जल जमात नामक संस्था ने शहर के प्राचीन तालाबों की खुदाई-सफाई शुरू की तो इस गांव के एक सौ आठ दलित क़रीब पचास किलोमीटर पैदल चलकर गया पहुंचे. और, उन्होंने सप्ताह भर वहां रहकर प्राचीन सरयू तालाब की खुदाई की. इस दौरान उन्होंने खाना-खुराकी की व्यवस्था भी स्वयं की. आज वनवासी नगर के दलित अपने कर्म, विचार, मेहनत और समाजसेवा के लिए पूरे ज़िले में चर्चित हैं. दलितों के सामूहिक प्रयास के कारण वनवासी नगर को सोशल एक्टिविटी के लिए 2005 का माजा कोईन अवार्ड मिल चुका है. गांव की एक और ख़ासियत है कि यहां किसी भी घर में ताला नहीं लगता. यहां के दलित अपने बच्चों को अधिकारों के लिए महात्मा गांधी के बताए मार्ग पर चलकर संघर्ष करने की शिक्षा देते हैं

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