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एकता परिषद भू अधिकार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अहिंसात्मक जन आंदोलन है. लोगों की आवाज सुनी जाए इसके लिए एक बड़े पैमाने की राष्ट्री अभियान की नींव रखी गयी थी, जिसे जनादेश 2007 कहा गया, जिसके माध्यम से 25 हजार लोगों ने राष्ट्रीय राजधानी तक पहुंच कर अपनी आवाज बुलंद की.

Friday 15 April 2011

जनांदोलन : मीडिया के लिए टीआरपी है या सच्चा सरोकार ?

मीडिया की इस सक्रिय भूमिका से शायद पहली बार भारत में किसी जनांदोलन को इतनी ताकत मिल पाई कि चार दिन में ही केन्द्र सरकार को मजबूर होकर आंदोलनकारियों की सारी बातें माननी पड़ीं। वरना, इससे पहले तो आंदोलन चाहे जितने संवेदनशील और महत्वपूर्ण मुद्दे पर, चाहे जितने सच्चे मन से और जितने बड़े पैमाने पर किया गया हो, मीडिया कवरेज के अभाव में उनका कोई असर नहीं हो पाता था और सरकार के कानों पर जूँ तक नहीं रेंग पाती थी।
एकता परिषद के पी.वी. राजगोपाल ने पिछले महीने एक साक्षात्कार में  सरकार द्वारा जनांदोलनों की परवाह नहीं किए जाने पर मायूसी व्यक्त करते हुए बताया था:
अहिंसक और गांधीवादी तरीके से किए गए आंदोलनों की सरकार एक तरह से परवाह ही नहीं करती। … आंदोलन चलाने वाले और इसमें शामिल होने वाले लोगों को लगता है कि सरकार केवल दबाव के आगे ही झुकती है। अहिंसक आंदोलनों को नजरअंदाज करने की भारत में एक सांस्कृतिक समस्या है। हमारे आदिवासियों के जन आंदोलन में 10 हजार व्यक्तियों के रामलीला मैदान में जमा होने पर भी सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। वह तो जब हमने संसद भवन की ओर कूच किया तब जाकर सरकार ने एक वरिष्ठ अफसर को भेजा कि सरकार आदिवासियों की बात सुनेगी। यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि जंतर-मंतर पर 10 हजार आदिवासियों के उपवास पर बैठने के बावजूद प्रधानमंत्री को इसका पता नहीं था। जब पीएम से मिलने का मौका मिला तो उन्होंने बताया कि उन्हें नहीं पता कि पूरे देश से इतनी बड़ी तादाद में आदिवासी दिल्ली पहुंचे हुए हैं और उनसे पहले किए वादे पर कार्रवाई चाहते हैं।
यह विश्वास कर पाना तो किसी के लिए भी कठिन होगा कि अन्ना के अनशन ने अचानक पत्रकारों की आत्मा को झकझोर दिया और मीडिया को अपने सरोकारों का अहसास हो गया। तो, क्या यह उसके लिए वाकई क्रिकेट के विश्व कप और आईपीएल के अंतराल में टीआरपी के स्तर को बरकरार रखने के लिए प्रायोजित किया गया एक ड्रामा भर था?
यदि सच्चाई यही है तो ‘भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनयुद्ध’ का यह ज्वार कब तक कायम रह पाएगा और किस अंजाम तक पहुंच पाएगा, यह तो आने वाला समय ही बता पाएगा। खासकर, इस आशंका के मद्देनज़र कि आंदोलन की सफलता का श्रेय और लाइमलाइट लूटने  की पुरानी होड़  और व्यक्तित्वों की आपसी टकराहट  उसे राह से भटका न दे।

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