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एकता परिषद भू अधिकार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अहिंसात्मक जन आंदोलन है. लोगों की आवाज सुनी जाए इसके लिए एक बड़े पैमाने की राष्ट्री अभियान की नींव रखी गयी थी, जिसे जनादेश 2007 कहा गया, जिसके माध्यम से 25 हजार लोगों ने राष्ट्रीय राजधानी तक पहुंच कर अपनी आवाज बुलंद की.

Friday 15 April 2011

गरीबों को जमीन दिलाने की लड़ाई

-पीवी राजगोपाल
   गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली के उपाध्यक्ष और एकता परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष पीवी राजगोपाल देश के आठ राज्यों में पिछले बीस सालों से जमीन के मसले पर अहिंसक संघर्ष करते आ रहे हैं। अब उन्होंने अपने संघर्ष को राज्यों की राजधानियों की बजाय राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली की ओर मोड़ दिया है।
मानवाधिकार दिवस 10 दिसंबर, 2005 को वंचितों की संसद में घोषित ‘जनादेश 2007′ आंदोलन को अंजाम देने के लिए वे आजकल सक्रिय हैं। नई दिल्ली स्थित केंद्र सरकार उनके निशाने पर है। राजगोपाल पिछले साल गांधी जयंती के दिन ग्वालियर से दिल्ली तक अपने चार सौ साथियों के साथ पदयात्रा करते हुए आए। इस मौके पर वे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिले और उन्हें अपनी मांगें सौंपते हुए यह मोहलत दी कि अगर एक साल के भीतर जमीनी स्तर पर उनकी मांगों पर कार्रवाई नहीं की गई तो वे 2007 में गांधी जयंती के दिन ग्वालियर में अपने पच्चीस हजार साथियों के साथ पदयात्रा करते हुए दिल्ली आएंगे। इस पदयात्रा को पूरा करने में जुटे पी.वी. राजगोपाल से प्रसून की हुई बातचीत के कुछ अंश यहां पेश किए जा रहे हैं।
जमीन के सवाल पर सरकार की भूमिका क्या रही है?
मैं यह बताना चाहता हूं कि आजादी मिलने के दौरान सभी भूमिहीनों को भूस्वामी बनाने की बात चल रही थी और आज स्थिति यह हो गई है कि जो भी छोटे भूस्वामी हैं, उन्हें भूमिहीन बनाने की बात चल रही है। एकदम उलटी स्थिति हो गई है। अपने देश के संविधान में भी भूमिहीनों को जमीन देने की बात कही गई है, पर इस मुद्दे पर अब कोई बात नहीं करता। राजनैतिक पार्टियां भी पहले अपने-अपने घोषणा-पत्रों में भूमिहीनों को जमीन दिलाने का वादा करती थीं। किंतु अब ये पार्टियां अपने वादे से मुकर रही हैं। इन पार्टियों की प्राथमिकताएं बदल गई हैं।
इस परिस्थिति को देखते हुए आप की ओर से क्या प्रयास चल रहा है?
पिछले तीन सालों से सत्ता में शामिल नेताओं, मंत्रियों से हम बात कर रहे हैं। विपक्षी नेताओं से भी हमने बात की है। लेफ्ट और राइट सभी दलों से बात की है। भूमिहीनों को जमीन देने के सवाल पर सभी सैद्धांतिक रूप से सहमत हो जाते हैं। लेकिन, सिर्फ सैद्धांतिक सहमति से गरीबों का भला नहीं होगा- यह सरकार की ओर  से क्रियान्वयन के रूप में भी दिखना चाहिए। ‘राष्ट्रीय विमुक्त घुमंतू व अर्धघुमंतू जनजाति आयोग’ के अधयक्ष बालकृष्ण रेंके ने बहुत अच्छी सिफारिश की है- मिनिमम लैंड होल्डिंग। यानी हरेक के पास कम से कम कितनी जमीन होनी चाहिए- यह तय हो। हम इस बात को भी हम सरकार के सामने रख रहे हैं।
आप सरकार से क्या चाहते हैं?
एकता परिषद की मांग रही है कि सरकार जमीन के मसले को हल करने के लिए राष्ट्रीय भूमि प्राधिकरण का गठन करे। लेकिन, विशेषज्ञों का कहना है कि इससे राज्य सरकारें सहमत नहीं होंगी। क्योंकि, उनके सारे अधिकार प्राधिकरण के तहत आ जाएंगे। इसलिए अब हम ‘राष्ट्रीय भूमि एक्सपर्ट कमेटी’ बनाने की मांग कर रहे हैं। हम चाहते हैं कि यह कमेटी सरकार को सिर्फ सलाह नहीं दे, बल्कि समयसीमा तय करके मानिटरिंग भी करे। इस दिशा में केंद्र सरकार क्या करेगी- यह बातचीत होने के बाद ही साफ हो सकेगा। इस बारे में हम प्रधनमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी से भी बात करने की कोशिश में हैं।
यदि केन्द्र सरकार आपकी न्यूनतम मांगों पर भी सहमत नहीं होती तो आपका अगला कदम क्या होगा?
एकता परिषद की कोशिश है कि केंद्र सरकार हमारी बातों को तवज्जो दे। क्योंकि, ऐसा करने से सरकार घाटे में नहीं रहेगी। बल्कि, इससे जमीन को लेकर देश भर में जहां-तहां जो हिंसक घटनाएं हो रही हैं उन पर रोक लगेगी। सुरक्षा के नाम पर खर्च हो रहे करोड़ों रुपयों की बचत होगी। जानमाल की क्षति रुकेगी। लेकिन, सरकार के लोग इस बात से डरते हैं कि अगर वे जमीन के मसले हल करेंगे तो उनकी सरकार गिर जाएगी। अब हम किसी की सरकार बचाने की चिंता तो करेंगे नहीं। हमारा संघर्ष भूमिहीनों को जमीन दिलाने के लिए है। इस बात को लेकर पिछले तीन सालों से बात की जा रही है।
2 अक्टूबर से जनादेश यात्रा निकालने के पहले तक हम सरकार को मौका दे रहे हैं कि वह हमारी बातों पर ध्यान दे।
यदि ऐसा नहीं हुआ तो हम अपने अहिंसक आंदोलन को और प्रखर करेंगे। इसकी आवाज गांवों तक ले जाएंगे। खेतों को जोतो-जीतो आंदोलन छेड़ेंगे। खेतों पर अहिंसक तरीके से कब्जा करेंगे-जोतेंगे। फिर सरकार इसके लिए सारे कानूनों का इस्तेमाल कर हमें कितनी भी यातनाएं देगी-हम उसे सहेंगे। लेकिन, अपने आंदोलन से पीछे नहीं हटेंगे। इसके बाद सरकार बुलाएगी तो भी दिल्ली नहीं आएंगे। सारे समझौते गांवों में आंदोलन स्थल पर ही किए जाएंगे।
कहते हैं कि जमीन का मामला राज्य सरकारों के अधीन है तो फिर आप राज्यों की राजधानियों में संघर्ष करने की बजाय दिल्ली की ओर पदयात्रा करते हुए क्यों आ रहे हैं?
ठीक है, जमीन का मामला राज्यों के अधीन है। लेकिन, राज्य सरकारें भी तभी हरकत में आएंगी, जब केंद्र सरकार इस दिशा में मंशा जाहिर करेगी। इंदिराजी ने केंद्र सरकार की ओर से ‘गरीबी हटाओ’ का नारा बुलंद किया तो इसके बाद राज्य सरकारों ने अपने-अपने स्तर से अपने यहां गरीबी हटाने की दिशा में प्रयत्न किया। इसी तरह केंद्र सरकार जमीन के मसले हल करने की दिशा में अपनी दृढ़ इच्छा जाहिर करेगी तो राज्यों में जरूर फिजा बदलेगी।
सरकार जमीन के मुद्दे पर संविधन में निर्दिष्ट मानदंडों से पीछे हट रही है। वह इन दिनों कंपनियों द्वारा किसानों की जमीन अधिग्रहण करने के बाद उत्पन्न स्थितियों पर कोई ठोस कदम उठाने की बजाय यह कहकर पल्लू छुड़ा रही है कि किसान और कंपनी जानें। मैं कहता हूं कि सरकार ऐसा कहकर अपनी नैतिक जिम्मेदारी से पीछे हट रही है।
अगर किसानों को कंपनियों के भरोसे छोड़ देगी तो कंपनियां अपनी गुंडागिरी की ताकत पर न सिर्फ जरूरत से ज्यादा जमीन अधिग्रहण कर लेंगी बल्कि किसानों को कम से कम मुआवजा भी देंगी।
सरकार को ऐसी परिस्थिति में किसानों के साथ खड़ा होना चाहिए और उन्हें अधिक से अधिक लाभ दिलाना चाहिए। वैसे भी मेरी लड़ाई जमीन का अधिक से अधिक मुआवजा दिलाने के लिए नहीं, बल्कि उनकी जमीन बचाने के लिए है, ताकि वे खेती कर अपनी आजीविका चला सकें और सम्मान की जिंदगी जी सकें।
क्या आपके संघर्षों का कोई नतीजा सामने आया है?
हां, अभी हाल ही में उड़ीसा सरकार ने ‘अपनी खेती अपना मकान’ कार्यक्रम गरीबों के लिए शुरू किया है। इस फैसले के लिए एकता परिषद के कार्यकर्ताओं को भुवनेश्वर में एक सौ साठ दिनों तक सत्याग्रह करना पड़ा। राज्य सरकार के मुख्य सचिव- सत्याग्रहियों के बीच स्वयं आए और सरकार के फैसले की जानकारी दी। ‘अपनी खेती अपना मकान’ के तहत उड़ीसा सरकार ने गरीबों को खेती और जमीन दिलाने का अभियान छेड़ दिया है। जनादेश आंदोलन की यह पहली सफलता है। मुझे उम्मीद है दूसरे राज्यों में भी सरकारें इसी प्रकार पहल करेंगी। हाल ही में हम लोग भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष वेंकैया नायडू से मिले और उनसे कहा कि कम से कम भाजपा शासित राज्यों में जमीन के मसले हल करने के लिए वे पहल करें।
आप अपने संगठन को सिर्फ संघर्ष में ही झोंके हुए हैं या रचना के काम से भी जुड़े हुए हैं?
अहिंसक आंदोलन में सभी काम एक साथ होता रहता है। चूंकि हमारा संघर्ष अहिंसात्मक है- इसलिए साथ ही रचना का काम भी होता रहता है, व्यक्ति निर्माण की प्रक्रिया भी चलती रहती है। सामूहिक प्रयासों में सच्चाई ही आधार होती है। तो कार्यकर्ताओं में ईमानदारी, त्याग आदि की क्षमता विकसित होती है। नये नेतृत्व की फौज भी तैयार होती है। आज चारों ओर भ्रष्ट नेतृत्व का बोलबाला है। ऐसे में एकता परिषद अपने संघर्षों के माध्यम से ही देश को नए और प्रतिबद्ध नेतृत्व की एक पीढ़ी सौंपने की प्रक्रिया में जुटी हुई है। हमारा यही रचनात्मक कार्य है।

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