About Me

एकता परिषद भू अधिकार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अहिंसात्मक जन आंदोलन है. लोगों की आवाज सुनी जाए इसके लिए एक बड़े पैमाने की राष्ट्री अभियान की नींव रखी गयी थी, जिसे जनादेश 2007 कहा गया, जिसके माध्यम से 25 हजार लोगों ने राष्ट्रीय राजधानी तक पहुंच कर अपनी आवाज बुलंद की.

Friday 15 April 2011

गरीब की जमीन पर अमीर का कब्जा

आज जैसे-जैसे जमीन की कीमत बढ़ती जा रही है, उसकी छीना झपटी भी बढ़ी है.
देश भर में आदिवासियों की जमीन अलग-अलग बहानों से छीनी जा रही है. बारा, शिवपुरी, ग्वालियर में छोटा-छोटा पंजाब बसा हुआ है. चूंकि पंजाब से जाकर लोगों ने कम कीमत पर आदिवासियों की जमीन इन इलाकों में खरीदी. जिससे आदिवासी बेघर हुए. एकता परिषद ने ऐसी 650 एकड़ जमीन लहरौली में गरीबों को वापस कराई. यह सही है कि सरकार के लिए सभी गरीबों को जमीन देना मुश्किल है लेकिन जिन लोगों के पास पहले से जमीन है, उनकी जमीन की हिफाजत की जिम्मेवारी तो सरकार ले ही सकती है.
आदिवासी इलाकों में जाकर देखिए, जमीन आदिवासी के नाम पर और जोत कोई और रहा है. ट्रेक्टर आदिवासी के नाम पर लेकिन कब्जा किसी और का है. बुंदेलखंड में जमीन, जंगल सब ताकतवर लोगों के हाथ में है. आज जिन संसाधनों पर गरीब आदिवासी काबिज हैं, उन्हें इनसे छीन कर अमीर लोगों के हाथों में पहुंचाया जा रहा है. आज राष्ट्रीय उद्यान, वाइल्ड लाईफ सेन्चुरी, टाइगर रिजर्व जैसी परियोजनाओं के नाम पर लगभग डेढ़ करोड़ लोगों को विस्थापित किया गया है और बदले में सरकार से कोई मुआवजा भी नहीं मिला है.
नक्सली भी अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में होने वाले हरेक प्रकार के उत्खनन में हिस्सेदार हैं. उनकी गतिविधियां भी इसी दम पर फल-फूल रहीं हैं. स्थितियां कुछ इस तरह की हैं कि सरकारी नौकरी करने वालों से लेकर ठेकेदार जैसे प्रभावशाली लोगों को कनफ्लिक्ट जोन ही प्यारा है. एवरीबडी लव्स ए गुड कनफ्लिक्ट. संघर्ष का क्षेत्र वास्तव में आज के समय का सबसे लाभ देने वाला व्यवसाय है. कई बार अहिंसक किस्म के आंदोलनों के साथ भी यह अनुभव सामने आया है कि उसे नक्सल आंदोलन को बढ़ावा देने वाला आंदोलन कहकर प्रचारित किया गया है.
सरकार नक्सली, उल्फा, बोडो सबसे बात करने को तैयार हैं, लेकिन उन लोगों के लिए सरकार के पास कोई नीति नहीं है जो लोग अहिंसक तरीके से आंदोलन चला रहे हैं. सरकार को चाहिए कि वह हिंसा की जगह अहिंसा को बढ़ावा दे. जो लोग अहिंसक रास्ते से अपनी बात कहना चाहते हैं, उन्हें भी सुने. सरकार के पास सुरक्षा का लंबा चौड़ा बजट है लेकिन उसके पास शांति को लेकर कोई बजट नहीं है. शांतिपूर्ण तौर-तरीकों से ही चंबल में डकैतों का आत्मसमर्पण हुआ. यदि सरकार हिंसा के दम पर यह करने जाती तो करोड़ों रुपए खर्च होते और सफलता भी संदिग्ध रहती. जहां नक्सल समस्या है, वहां की बात न करें तो भी जिन इलाकों में यह समस्या नहीं है, वहां शांति बनी रहे, इसके लिए सरकार के पास क्या योजना है?
देश का महानगरीय समुदाय समझता है कि जमीन, किसान और पानी के मुद्दे से उसका क्या सरोकार लेकिन वह यह नहीं समझ पा रहा कि यह सब गरीबों के हाथों से छीनना न रुका तो अपना सब कुछ गंवा चुका एक आदिवासी या गरीब व्यक्ति गांव में कैसे रहेगा. यदि यह सब यूं ही चलता रहा तो उन करोड़ों लोगों को महानगरों में पनाह देने के लिए इन महानगरीय समुदाय के लोगों को तैयार रहना चाहिए. सब कुछ यूं ही चलता रहा तो वे सब लोग महानगरों की तरफ ही आएंगे. यहीं झुग्गी डालकर रहेंगे और कभी वापस नहीं जाएंगे क्योंकि वे अपना सब कुछ सरकार के हाथों गंवाकर ही तो यहां आएंगे. यदि हम अपने आराम को ठीक प्रकार से समझते हैं तो हमें दूसरों के आराम को भी समझना होगा. मध्यम वर्ग को यह समझना चाहिए कि वे आदिवासी और गरीब किसानों की कब्रा पर लिखी जा रही विकास की कहानी के ऊपर कैसे सो पाएंगे.
सरकार को भी यह समझना चाहिए कि गरीबों-वंचितों को समाज को विभिन्न तरह की योजनाओं के तहत पचास-सौ रुपए बांटकर वह समाज में कल्याणकारी छवि तो बना सकती है लेकिन इस तरह से कभी आत्मनिर्भर समाज का निर्माण नहीं कर पाएगी. बल्कि इसके चलते मांगने वालों का समूह तैयार होगा. संरचनात्मक हिंसा को समझे बिना और उस पर लगाम लगाए बिना हम समाज के हिंसा पर काबू नहीं पा सकते.

No comments:

Post a Comment