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एकता परिषद भू अधिकार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अहिंसात्मक जन आंदोलन है. लोगों की आवाज सुनी जाए इसके लिए एक बड़े पैमाने की राष्ट्री अभियान की नींव रखी गयी थी, जिसे जनादेश 2007 कहा गया, जिसके माध्यम से 25 हजार लोगों ने राष्ट्रीय राजधानी तक पहुंच कर अपनी आवाज बुलंद की.

Friday 15 April 2011

नरेगा कानून : रचनात्मक सोच जरूरी

राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना की चर्चा तेजी से चल रही है। बहुत सारे लोग इस कार्यक्रम को ऐसे प्रस्तुत कर रहे हैं जैसे कि इसी कार्यक्रम में संपूर्ण क्रांति छिपी हुई हो। कांग्रेस पार्टी की सरकार भी यह मानकर चल रही है कि उनकी जीत के पीछे रोजगार गारंटी का हाथ रहा है। मैं रोजगार गारंटी का विरोधी नहीं हूं, लेकिन जिस ढंग से रोजगार दिया जा रहा है उससे मुझे आपत्ति है। मैं पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में देख रहा था कि किस प्रकार जंगल और जमीन आधारित जीवन जीने वाले हजारों लोगों को रोजगार औद्योगिकीकरण और विकास के नाम पर छीन लिया गया है। पिछले कुछ वर्षों में खदान, वन्य प्राणी संरक्षण, औद्योगिकीकरण, चार लाईन सड़क के नाम से जिस प्रकार स्वावलंबी समाज को बर्बाद किया जा रहा है। उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और भारत के अन्य कई प्रांत इसके उदाहरण हैं। एक समय जो स्वावलंबी और स्वाभिमानी लोग थे, वे ही आज सड़कों पर मजदूर बनकर मिट्टी डाल रहे हैं। लाखों रोजगारों को बेरोजगार कराने वाले विकास प्रक्रिया को भी भारत सरकार चला रही है जो रोजगार गारंटी के नाम से इन ग्रामीणों से इस तरह मिट्टी खुदवा रही है जैसे भारत सरकार अचानक देशवासियों पर फिदा हो गई है।
परिवार में अपने-अपने लोगों के रहते हुए और गांव में इतने सारे लोगों के रहने के बावजूद कोई निराश्रित कैसे हो सकता है? विधवाओं के लिए, विकलांगों के लिए, राशन कार्ड बनवाने वालों के लिए, सबके लिए हमारे देश में कतार ही कतार है। 62 साल की आजादी के बाद हम इसी व्यवस्था को इस देश की उपलब्धि और विकास मानते हैं। समाज को स्वावलंबी बनाने के बजाय हम जल, जंगल, जमीन जैसे जीवन जीने के प्राकृतिक संसाधनों को गांव के ही हाथ को सौंपने के बदले भिखारियों की लंबी कतार तैयार कर रहे हैं। रोजगार गारंटी कानून के माध्यम से शायद संदेश यही देना चाहते हैं कि तुम सब गरीब जनता मिट्टी खोदते रहो ताकि देश का संचालन करने वाली जमात जल, जंगल, जमीन को बड़े पैमाने पर पूंजीपतियों के हाथ हस्तांतरित कर सके। मिट्टी खोदने में ही तमाम गरीब जनता अगर मस्त हो, पेट भरने की लड़ाई में अगर सारा देश व्यस्त हो तो फिर व्यापक सवाल कौन पूछेगा या व्यवस्था परिवर्तन के लिए आन्दोलन कौन करेगा? आखिर सरकार पेट तो भर ही रही है तो आन्दोलन किस बात का?
पिछले कुछ वर्षों से यह प्रचार तेजी से चला रहा है कि आतंकवाद ही इस देश के लिए खास खतरा है। मैं हर प्रकार की हिंसा का विरोधी हूं और मानता हूं कि वैचारिक शक्ति खत्म होने पर ही इंसान हिंसा शक्ति का प्रयोग करता है। मैं इस बात को नहीं मानता हूं कि आतंकवाद को जिस प्रकार आज परिभाषित किया गया है, उसी से देश को या दुनिया को खतरा है। झारखंड, छत्तीगसढ़, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, बिहार या उत्तरप्रदेश में थोड़ा-सा भ्रमण करके आइए तो आपको मालूम पड़ेगा कि आतंक के पीछे असल में कौन है? खदान चलाने वालों एवं सेज निर्माण में लगी कंपनियों से पीड़ित लाखों-लाख जनता अपनी जान बचाने के लिए मारी-मारी फिर रही है। इन्हें पाकिस्तान या इराक के आतंक से फिलहाल कोई खतरा नहीं है। इनके ऊपर दिन-प्रतिदिन जो आतंक का कहर चल रहा है, उससे इन्हें कौन मुक्ति दिलाएगा?
जब तक धनी देशों में रहने वाले अपनी जीवनशैली में क्रांतिकारी बदलाव नहीं लाएंगे तब तक ग्लोबल वार्मिंग या मौसम परिवर्तन की समस्या हल नहीं होगी। हरेक व्यक्ति अगर एक गाड़ी चलाए, तेल उत्पादन की दौड क़ी खातिर अगर लाखों एकड़ जमीन जेट्रोफा की खेती करने लग जाएगी तो खाद्यान्न सुरक्षा कैसे होगी? चारों तरफ आज जिस प्रकार का संकट दिखाई पड़ रहा है उससे ऐसा महसूस होता है कि जैसे सारी दुनिया पगला गई हो। महसूस हो रहा है कि जैसे इंसान ने प्रकृति के साथ ही युध्द छेड दिया हो। अगर हम वर्तमान समस्याओं को सुझाना चाहते हैं तो जरूरत है कि जिस बाजार व्यवस्था से समस्या उत्पन्न हुई है उसी बाजार व्यवस्था से समाधान ढूंढने का प्रयास न करें। समाधान के लिए हम उनकी ओर न देखें, जिन्होंने इस दुनिया को गर्त में लाकर खड़ा कर दिया है। गांधीजी के रास्ते पर चलकर, हिन्द स्वराज और ट्रस्टीशिप के रास्ते पर चलकर ही इन विषमताओं से दुनिया को मुक्ति दिला पाएंगे। भारत के सामने अब भी मौका है कि वह दुनिया को एक नया रास्ता दिला सकता है।

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